घरौंदे
घरौंदे
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जो छोड़ आये है पीछे,
वोह गलियाँ वोह मकान,
वोह दीवारें वोह दरीचे,
अपनी शक़्लभूल चुके हैं !
गुजरी हवाओं के थपेड़ोंमे,
अपने अहसास के पत्ते,
खो चुके है !
आज मेरा माज़ीअपनी,
सफर से भटक गया है,
जानी पहचानी राहों के
बदले रंगरूपमें,
कहीं बह गया है !
आंसुओं की ओस से
क्या कभी वीरानों को,
हरे होते देखा है ?
सुना है गीली मिट्टीओं में,
उग जाते तो है तिनके,
घरौंदों को कैसे उगाए कोई ?
