Prem Bajaj

Others

3  

Prem Bajaj

Others

दहलीज

दहलीज

1 min
153


आकांक्षाओं के सुन्दर बाग दिखा कर मन मोह रही है मेरा दहलीज ,

मन की पतंग को देती है हवा उस पार की दहलीज ।

तन रहता दहलीज के अन्दर मन उस पार घूम आता है ,

नित नए रंग दिखाता है ।

चाहता है मन उड़ना पंख लगा कर दहलीज के उस पार ,

मगर लांघ नहीं सकती मैं ये दहलीज ।

उस पार दहलीज के, जीते हैं सपने मेरे , इस पार घर है ,

परिवार है , ज़िम्मेदारियां हैं ,ममता है, मर्यादाएं हैं , परम्परा की बेड़ियां है ,

ये सब रोकते हैं , मुझे टोकते है , लांघने नहीं देते दहलीज ।

नहीं लांघ पाऊंगी मैं मर्यादा की दहलीज , नहीं लांघ पाऊंगी विश्वास की दहलीज , 

नहीं लांघ पाऊंगी मैं परम्पराओं की दहलीज ।

दहलीज के अन्दर ही रह करके लांघनी है दहलीज, रूढ़िवादी प्रथाओं की , 

अंधविश्वास की कथाओं की , पिंजरे में कैद करने वाली हवाओं की ।

खड़ी हूं दहलीज पर फंसी हूं धर्मसंकट में , दहलीज पार करूं तो कैसे ,

हूं अजीब सी कशमकश में ।

लांघ चुकी उम्र की दहलीज , अब नहीं लांघ पाऊंगी ये दहलीज ।

छोड़कर दहलीज पर सब चाहते , इच्छाएं , आकांक्षाएं लौट आती हूं

दहलीज के अन्दर , नहीं लांघ सकी मैं ये दहलीज ।


Rate this content
Log in