दहलीज
दहलीज
आकांक्षाओं के सुन्दर बाग दिखा कर मन मोह रही है मेरा दहलीज ,
मन की पतंग को देती है हवा उस पार की दहलीज ।
तन रहता दहलीज के अन्दर मन उस पार घूम आता है ,
नित नए रंग दिखाता है ।
चाहता है मन उड़ना पंख लगा कर दहलीज के उस पार ,
मगर लांघ नहीं सकती मैं ये दहलीज ।
उस पार दहलीज के, जीते हैं सपने मेरे , इस पार घर है ,
परिवार है , ज़िम्मेदारियां हैं ,ममता है, मर्यादाएं हैं , परम्परा की बेड़ियां है ,
ये सब रोकते हैं , मुझे टोकते है , लांघने नहीं देते दहलीज ।
नहीं लांघ पाऊंगी मैं मर्यादा की दहलीज , नहीं लांघ पाऊंगी विश्वास की दहलीज ,
नहीं लांघ पाऊंगी मैं परम्पराओं की दहलीज ।
दहलीज के अन्दर ही रह करके लांघनी है दहलीज, रूढ़िवादी प्रथाओं की ,
अंधविश्वास की कथाओं की , पिंजरे में कैद करने वाली हवाओं की ।
खड़ी हूं दहलीज पर फंसी हूं धर्मसंकट में , दहलीज पार करूं तो कैसे ,
हूं अजीब सी कशमकश में ।
लांघ चुकी उम्र की दहलीज , अब नहीं लांघ पाऊंगी ये दहलीज ।
छोड़कर दहलीज पर सब चाहते , इच्छाएं , आकांक्षाएं लौट आती हूं
दहलीज के अन्दर , नहीं लांघ सकी मैं ये दहलीज ।