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चोरी

चोरी

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कितना भारी ,

कितना दमदार ,

लगता है हरदम ,

पति का बटुआ।


जी करता है ,

ये मिल जाए ,

सैर - सपाटे से ,

ये मन भर जाए।


कभी निकाल ,

इसमे से रूपये ,

मैं मन भर के ,

खुद पर लुटाऊँ।


कभी खरीद ,

नए गहने - कपड़े ,

मैं मन ही मन ,

खुद से इठलाऊँ।


वो रोज़ मुझे  

रखने को देते ,

मेरी नीयत का ,

इमतिहान लेते।


मैं पकड़ हाथ में ,

उसका वजन नापती ,

फिर हौले से ,

उसमे झाँकती।


कभी दिखता वो ,

एकदम खाली ,

मैं मन ही मन ,

तब देती गाली।


पर जब उसमे से ,

रूपये झाँकते ,

मेरे हृदय में ,

तब साँप नाचते।


मैं कभी चुराती ,

उसमे से पैसे ,

पर उनसे कहती ,

ये चोरी नहीं वैसे।


वो धीरे से ,

तब मुस्का के कहते ,

ये रूपये भी हैं ,

बिलकुल तुम्हारे जैसे।


ना तुम रुकती ,

ना ये ,

फिर भी तुम दोनो ,

कितने सच्चे।


मैं तब एकदम ,

चुप सी हो जाती ,

फिर उनके बटुए को ,

ना हाथ लगाती।



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