Kunal kanth

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अफ़साने हुए फ़क़त कागज़ी नथी

अफ़साने हुए फ़क़त कागज़ी नथी

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अफ़साने हुए फ़क़त कागज़ी नथी 

वगरना हम भी थे ए'जाज़-ए-उल्फ़त कामिल


 मुसलसल क्लब हुए बेजार लम्हों में 

आदतन हम भी थे गुलजार जमीं के लिए 


इक शजर पूछ रहा कब्र पे आ कर मेरी 

किस वहम में खुदा समझ बैठे उल्फत कामिल


ये दस्तूर है इश्क की अपनी ए दिवाने 

तुमने किस वादें पे जीस्त को लिख दिया जन्नत के परवाने 


खाक हो कर राख अब भी रक़्स ए सोहबत में उसके

बड़े वहशत ए इश्क में निकले है जनाजे कामिल 


 देर कर दी होश में आते आते 

वगरना होते हम भी अजीज़ ए शख्शियत कामिल ।


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