अफ़साने हुए फ़क़त कागज़ी नथी
अफ़साने हुए फ़क़त कागज़ी नथी
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अफ़साने हुए फ़क़त कागज़ी नथी
वगरना हम भी थे ए'जाज़-ए-उल्फ़त कामिल
मुसलसल क्लब हुए बेजार लम्हों में
आदतन हम भी थे गुलजार जमीं के लिए
इक शजर पूछ रहा कब्र पे आ कर मेरी
किस वहम में खुदा समझ बैठे उल्फत कामिल
ये दस्तूर है इश्क की अपनी ए दिवाने
तुमने किस वादें पे जीस्त को लिख दिया जन्नत के परवाने
खाक हो कर राख अब भी रक़्स ए सोहबत में उसके
बड़े वहशत ए इश्क में निकले है जनाजे कामिल
देर कर दी होश में आते आते
वगरना होते हम भी अजीज़ ए शख्शियत कामिल ।