अब मैं अपने पँख खोल रही हूँ
अब मैं अपने पँख खोल रही हूँ
”अपने नए उगे पँख तोल रही हूँ मैं … “
तलाश खुद की करने निकल पड़ो तो…
सुकूँ भी रास्ते में मिल ही जाएगा !
भला ये किसने कहा कि…
तुम्हारे जाने के बाद मैं तन्हा हो गई हूँ…?
अब मैं फिर से खुद की खोज में निकली हूँ ;
मुझे बहुत याद आने लगी थी ज़ब खुद की,
सोचा,आखिर क्यों मैं खुद को भूल चुकी हूँ ?
नए सफर में ज़ब देखा अपनी लंबी रहगुजर को तो,
हर एक रास्ता मंज़िल की तरफ ले जाता तो था ;
बस…मैंने ही अपने सारे स्कंध तुम्हारे बाजुओं के
इर्द गिर्द कुछ बड़ी ही मज़बूती से लपेट रखा था !
अब धीरे-धीरे एक-एक बंध खोलकर रख रही हूँ,
कहीं की तुरपाई तो कहीं की सिलाई खोल रही हूँ !
अकेले का सफर आसां नहीं पर स्वाभिमान संग है ;
साहस दिलाने को ये बार बार खुद को बोल रही हूँ !
बढ़ाना मेरा हौसला कि रुकें ये कदम कभी ना,
अभी तो एक पैर से उचककर छूना है आसमां ;
अपनी ख्वाहिशों का अलख जगाकर रख रही हूँ,
मैं फिर से उड़ने को अपने नए उगे पँख तोल रही हूँ!
मंज़िल चाहे अब कितनी दूर हो, पाकर रहूंगी ;
आज मैं एक बार फिर खुद से यही बोल रही हूँ !
अब अपना एक हाथ दूसरे हाथ से पकड़कर,
मैं फिर से उड़ने को अपने नए उगे पँख तोल रही हूँ !