दूसरों का ना सोचकर अपने लिऐ ही जिया, आज ख़ुद को अपनी नज़रों में गद्दार3 पाया। दूसरों का ना सोचकर अपने लिऐ ही जिया, आज ख़ुद को अपनी नज़रों में गद्दार3 पाया।
हिज़्र में निगाहे यार जो दो-चार हो जाती, तो गुमान-ए-वस्ल की फ़िर रात कहाँ आती।। हिज़्र में निगाहे यार जो दो-चार हो जाती, तो गुमान-ए-वस्ल की फ़िर रात कहाँ आती।।