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chandraprabha kumar

Others

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chandraprabha kumar

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साहिबगंज की स्मृति

साहिबगंज की स्मृति

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 साहिबगंज के साथ बहुत सी यादें जुड़ी हुई हैं। बिहार में वहॉं हमारा यह पहला आगमन था। जब पहली बार वहॉं गये , तो एक कृष्णकाय कृष्ण वर्ण छोटे से बालक को निडर हो एक कृष्णकाय मोटी- ताजी भैंस की सवारी करते देख अवाक् हो गये। इतना छोटा सा बच्चा इतनी बड़ी भैंस पर जिसके बड़े बड़े मुड़े हुए सींग थे, बैठकर कितने निडर भाव से जा रहा था , सभी चिन्ताओं से दूर प्रसन्न मन से। ठेठ पश्चिमी उत्तर प्रदेश से आये हुए हमारे लिये पहली बार यह दृश्य देखकर भौंचक हो जाना स्वाभाविक था। बच्चे में आत्मविश्वास की गरिमा थी, भैंस से गिर पड़ने का कोई डर नहीं था। उसके साथ कोई बड़ा आदमी भी नहीं था। बच्चा क़रीब क़रीब नंगे बदन था, कोई क़मीज़ नहीं पहने हुए था ,बस एक लँगोटी टाईप छोटी सी धोती बांधी हुई थी। दृश्य देखते ही रह गये। मेरे लिये नया और अनोखा दृश्य था। बाद में पता चला वो संथाल बालक था, संथाल यहॉं के आदिवासी हैं। भैंस को ले जाकर वे जोहड़ में नहलाते थे। और वहॉं खेलते तैरते भी रहते थे। 

   यह बहुत पहिले की बात है। तब साहिबगंज दुमका के अन्तर्गत एक सबडिवीज़न था। बिहार में दुमका ,संथाल परगना ज़िले का मुख्यालय था। अब तो साहिबगंज और दुमका झारखंड राज्य में आते हैं जो बिहार से अलग होकर बना है सन् दो हज़ार में। अब साहिबगंज झारखंड का एक ज़िला है। 

    साहिबगंज के अन्दर बॉंझी,बोरियो आदि आते हैं। साहिबगंज का काफ़ी हिस्सा पहाड़ी है। तब बॉंझी से साहिबगंज तक वन विभाग की ओर से सड़क निर्र्माण भी हो रहा था। इस वजह से बॉंझी और बोरियो भी जाना होता रहता था। साहिबगंज में अधिकतर पहाड़िया और संथाल जनजाति हैं। 

साहिबगंज के पहाड़ी क्षेत्र में पहाड़िया लोग रहते थे और नीचे घाटी में संथाल लोग। जो बरबट्टी और मक्का की खेती कर जीवन यापन करते थे। 

   यहॉं वन विभाग की ओर से सबाई घास को उन्नत बनाकर आदिवासी महिलाओं एवं पुरुषों को आर्थिक सुविधा देने का कार्यक्रम चलाया जा रहा था। उसी सिलसिले में हमारा भी आना हुआ था। सबाई घास प्राकृतिक सामग्री है, हल्की होती है, काम करने में आसान है। पहाड़ी क्षेत्र में सबाई घास का जंगल था। वहॉं जाकर झाड़ झंखाड़ उखड़वाने का काम कराना होता था, जिससे सबाई घास अपने फैल जाती थी। सबाई घास आम घास की तरह होती है , पर लम्बी होती है। इसे बंटकर आसानी से रस्सी बना ली जाती थी। यह रंगने में भी आसान होती थी और इससे टोकरी और चटाई भी बना ली जाती थी। सबाई घास वहॉं के बहुत लोगों के जीवन का आधार थी। स्त्रियों को भी आर्थिक मदद मिलती थी। 

 पहाड़ पर चढ़कर काम कराना आसान नहीं होता था। नीचे आने पर कपड़े पसीने से इतने तर हो जाते थे कि हाथ से निचोड़ना पड़ता था। 

    पहाड़िया लोगों ने सरकार से सबाई घास का एरिया लीज़ पर लिया हुआ था ; और सबाई घास का काम संथाल लोगों से कराते थे। संथाल काफ़ी मेहनतकश थे। अधिकतर काम वे ही करते थे। काम करके संथाल लोग लौटते थे, तो उनसे हम बात करना चाहते थे। संथाल युवतियॉं तो चुप रहती थीं , उनकी और से संथाल युवक ही जवाब देते थे। वे टूटी फूटी हिन्दी समझ बोल लेते थे। संथाल युवतियाँ धोती पहनती थीं, जो घुटनों से थोड़ा नीचे तक आती थी। वे बालों के जूड़े में सखुआ का फूल खोंसे रहती थीं। सबका कृष्ण वर्ण था लेकिन चेहरे पर आकर्षण और भोलापन था। 

वहॉं तब घना जंगल था। महुआ, सखुआ के पेड़ सब जगह थे , इनके फूलों की ख़ुशबू फैली रहती थी। संथाल लोग इमली के पेड़ों के झुरमुट में अपनी झोंपड़ी बनाते थे और आम के पेड़ों की ठंडी छाँव में आराम करते थे।  एक बार हम बॉंझी गये हुए थे। वहॉं जंगल के मनोरम दृश्य देखते हुए पैदल ही घूम रहे थे। कि एक तालाब में बहुत से हल्के गुलाबी रंग के कमल खिले हुए देखकर वहीं ठहर गये और कमल पुष्पों की शोभा निहारने लगे। इतने घने जंगल बीच यह छोटी सी पुष्करिणी ! हम आश्चर्यचकित रह गये। फूल लेना चाह रहे थे , पर तोड़ें तो कैसे ? बीच तालाब में पुष्प थे, किनारे पर नहीं। वहॉं जायें तो कैसे ? 

     हमारा असमंजस देख वहॉं खेल रहा एक बारह- तेरह वर्ष का छोटा संथाल किशोर हमारे पास आया, वह हमसे कुछ बोलकर तालाब में घुस गया और तैरकर जाकर दो एक कमल पुष्प डंडियों सहित ले आया और साथ ही एक गोल चौड़ा सा हरा बीज - कोश सा ले आया। उसने कमल हमारे हाथ में पकड़ा दिये। और बीज- कोश से निकालकर एक हरा बीज छीला, उसमें से छिलका हटाने पर सफ़ेद बीज निकला ,जो उसने हमें खाने को दिया। खुद भी एक बीज खाकर दिखाया कि खाने की चीज है। 

    वह हमने लिया, खाने में मीठा था। हमें बाद में पता चला कि वही पककर कमल गट्टा बन जाता है । यही कमल गट्टा हम पूजा में चढ़ाते हैं , पर जानते नहीं थे कि क्या चीज़ होता है। आज उस संथाल किशोर की वजह से यह जानकारी हो गई। और पहली बार ताजे टूटे हुए कमल पुष्प हमारे हाथों में आये। हमने उस बालक के मौन उपकार का बहुत आभार माना और उसे कुछ पारितोषिक देना चाहा पर उसने कुछ स्वीकार नहीं किया। 

   उस बच्चे की सहृदयता हम आज तक याद करते हैं। अपरिचित होने पर भी उसने कितना बड़ा काम किया। उसकी सरलता और निपुणता से हम अभिभूत हो गये। हमारा साहिबगंज का और बॉंझी का ट्रिप सार्थक हुआ, हम उसे भूले नहीं हैं, वह अभी तक हमारी यादों में बसा है।


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