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chandraprabha kumar

Others

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chandraprabha kumar

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सखुआ के फूल

सखुआ के फूल

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जब हम छोटा नागपुर के रॉंची जिले में थे, जो आजकल झारखंड राज्य की राजधानी है,तब की बात है। हमारे यहॉं घर के काम में मदद करने एक आदिवासी मुंडा प्रौढ़ा स्त्री आया करती थी। उसने एक दिन छुट्टी माँगी। पता चला उसे पूजा करनी थी। 

हमने पूछा-“ किसकी पूजा करनी है ?”

तो वह बोली-“ मुर्गी की”।

हमको बड़ा आश्चर्य हुआ। मुर्गी की पूजा कौन करता है !

हमने पूछा-“ मुर्गी की पूजा कैसे करते हो?”

तो वह बोली-“ मुर्गी को काटते हैं, उसकी खिचड़ी बनाते हैं। पाहन उसका प्रसाद सबको बॉंटता है। हंडिया( चावल के पानी की) पीने को मिलती है। “

हमारी उत्सुकता बढ़ी, यह कैसी पूजा है कि मुर्गी ही देवता हैं और उसी को काटकर पकाकर प्रसाद मिलता है । वह मुण्डा स्त्री ज़्यादा कुछ बता नहीं पाई। हमने उसे तो छुट्टी दे दी पर स्वयं आदिवासियों का उत्सव देखने की उत्सुकता जाग गई। हमने जीप ली और निकल गये समीपवर्ती खूँटी सबडिवीजन की ओर। 

पता चला कि आदिवासियों का सरहुल पर्व धूमधाम से मनाया जा रहा थी। आदिवासियों के मिट्टी से बने हए साफ़ सुथरे घर थे, उन पर फूलों की चित्रकारी थी। सरना स्थल ( पूजा की जगह) पर पूजा हो चकी थी। मुंडा, उराँव, संथाल आदि जनजाति के लोग प्रकृति की पूजा करते हैं। सरना प्रकृति मॉं है। प्रकृति को विधाता मानते हैं। सिंग बोंगा (सूर्य) उनके परम परमेश्वर हैं। सखुआ वृक्ष के नीचे पूजा स्थल सरना होता है। साल की फूलों सहित डालियॉं यहॉं लगाते हैं। 

 ‘ सर’ और ‘हुल’ में सर का मतलब सखुआ का फूल और हुल का मतलब क्रान्ति होता है अर्थात् सखुआ के फूलों की क्रान्ति। सखुआ को सरई या साल भी कहते हैं। मुंडारी, संथाली और हो भाषा में सरहुल को बा पोरोब या बाहा पोरोब कहते हैं। बा का अर्थ है फूल। अर्थात् फूलों का त्यौहार। साल की डालियॉं फूलों सहित काटते हैं और लगाते हैं ।चैत्र शुक्ल तृतीया से तीन दिन तक या चैत्र पूर्णिमा तक सखुआ वृक्ष की विशेष तौर से पूजा की जाती है ।तब सखुआ वृक्ष की शाखाओं पर नये फूल आते हैं। यह वसन्त का त्यौहार है।जनजाति के लोग पारंपरिक लोकगीत गाते हैं और नृत्य करते हैं। 

  पाहन धर्मगुरु होते हैं ,जो पूजा का अनुष्ठान करते हैं। तीन मुर्गा/ मुर्गी की बलि दी जाती है और उनकी खिचड़ी बनाकर प्रसाद के रूप में खाते हैं। चावल का पानी सबको देते हैं जो हंडिया कहलाता है। बेहतर फल व फसल के लिये बलि दी जाती है। गॉंव के देवता की भी पूजा होती है। 

 पतझड़ के बाद पेड़ पौधे खुद को नये पत्तों से सजा लेते हैं ।आम के पेड़ में मंजर लगते हैं। सखुआ और महुआ के फूलों से वातावरण सुगन्धित हो जाता है। आदिवासियों के नए साल की भी शुरुआत होती है। सखुआ का पेड़ और पत्ता ज़्यादा महत्त्व रखता है। आदिवासी महिलायें सखुआ के फूलों को बालों में खोंसती हैं। 

जब हम पहुँचे नृत्य और गान चल रहा था। आदिवासी महिलायें पारंपरिक वेशभूषा में नृत्य कर रहीं थीं और पुरुष वाद्ययंत्र बजा रहे थे। विशेष राग में गीत व नृत्य चल रहा था। इस अवसर पर महिलायें लाल किनारी की सफ़ेद साड़ी पहनती हैं और बालों का जूड़ा बना सरई के फूल लगाती हैं। एक दूसरी की कमर में हाथ डालकर गोल बनाकर गोलाकार सामूहिक नृत्य करती हैं। 

मुझे भी आया देखकर उन्होंने साथ नृत्य करने का आमंत्रण दिया। मैंने मना करते हुए कहा- मुझे नृत्य नहीं आता”।

इस पर उन्होंने कहा-“ यह बहुत आसान है “

और आकर मुझे नृत्य के स्टेप बताये और अपने साथ शामिल कर लिया। 

पहली बार उनके साथ गोल झुंड में कमर में हाथ डालकर नृत्य किया और उनके उल्लास के खुद भी महसूस किया। मुंडा, उरॉंव, संथालों में मुर्ग़े की बलि व मदिरापान को रोकने के लिये संथालों के गुरु भागीरथ बाबा के प्रयासों से साफाहोड़ सम्प्रदाय चला जिसमें बलि व मदिरापान का कोई स्थान नहीं। बलि व हंडिया की जगह ये लोग फल- फूल, मिष्टान्न व तुलसी का इस्तेमाल करते हैं और पूर्णतया निरामिष आहार पर ज़ोर देते हैं। 

समय के साथ साथ आदिवासी संप्रदाय में भी शिक्षा के साथ - साथ परिवर्तन की लहर आ रही है और अपेक्षित सुधार हो रहे हैं।


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