कुछ यादें मेरे बचपन की
कुछ यादें मेरे बचपन की
स्कूल बन्द होने पर गर्मियों की छुट्टियों का इंतज़ार
न होमवर्क, न एक्स्ट्राक्टिवटीज़ की क्लासें, न कोई समर कैम्प
बस मस्ती मस्ती और मस्ती !
याद है मुझे वो गाँव जाने की तैयारियां माँ भाई बहनों के साथ
याद है मुझे वो बस में धक्के खाते गाँव की सड़क तक पहुंचना।
गाँव पर हमारे आने की तैयारी, सड़क पर छोटे चाचा और उनके बच्चे बैलगाड़ी लेकर घंटों से इंतज़ार करते हुए !
बस रुकते ही एक तरफ़ से हमारा शोर एक तरफ से चाचा के बच्चों का !
बैलगाड़ी से सड़क से गाँव तक का मनमोहक सफ़र।
बार बार डाँट खाने पर भी किनारे खड़े होकर चारों तरफ बाग बगीचे और खेतों की सुंदरता देखना, खेत तो उस समय लगभग वीराने ही होते क्योंकि गेंहूं कट चुका होता। धान की तैयारी हो रही होती। हाँ, हमारे यहाँ तब गन्ना बहुत बोया जाता था वो दिखते थे जगह जगह !
पेड़ों पर लगे आम और जामुन बहुत अच्छे लगते। मन ही मन योजना बन जाती कि घर में लाया हुआ आम नहीं खाना है। ढेला मार कर तोडना है और पेड़ पर चढ़ कर तोड़ना है !
घर में घुसते हम सब शोर शराबे के साथ ,गाँव पर मझले बाबा दादी रहते थे मेरे बाबा छावनी पर विक्रमजोत में रहते थे दादी तो मेरे होने से पहले ही जा चुकी थीं बाबा के साथ बड़े चाचा और उनका परिवार रहता था !
गाँव पहुँचते ही बहुत अच्छा लगता था कहारिन परात और पानी लेकर आती और सबके पैर ख़ूब अच्छे से दबा दबा कर धोती !
चाची घर का बना गुड़ पेड़े और एक और चीज़ जो शायद बहुत से लोग नहीं जानते होंगे, पीतिऊड़ा बोलते हैं गुड़ को ख़ूब अच्छे पका कर उसमें ड्राई फ्रूट्स और सोंठ वगैरह डाल कर बनता है पानी पीने के लिए लेकर आतीं, चलो चाय पानी के बाद हमारे दिमाग के कीड़े मचलने लगते क्या किया जाय ?
तो शुरुआत होती बाहर भागों और हम भाग उठते बाहर एक बहुत पुराना बरगद का पेड़ था। उससे तो हमारी बहुत सी यादें जुड़ी हैं। पेड़ के नीचे ही एक अच्छा सा कुँआ था उस पर एक पटरा लगा था। बीच में और ढेकुर (लोहे का एक बड़ी बाल्टी जैसा बना होता ) उसमें मोटा रस्सा लगा होता और पता नहीं कैसे कैसे उसे बाँध कर हलवाहे लोग खेतों की सिंचाई करते थे ! बरगद तो इतना घना था कि सूर्य की किरणें उससे नहीं छन पाती तो हमारा सारा खेल वही चारपाई डाल कर होता। बरगद के पत्तों से हम बहुत सारी चीज़ें बनाते, गाय, बैल, पर्स और जाने क्या क्या ! जब खेलकर ऊब जाते हम तो पानी निकालने को आदमी को बुला कर नहाना शुरू कर देते और तब तक नहीं हटते या तो दाँत बजने लगे या डाँट पड़ने लगे !
फिर खाना खाके हम सब बरामदे में बैठ जाते और छोटी बुआ हमें गा गा कर रामायण सुनाती हम सो जाते ! अँधेरा होने लगता तो हम फिर वहीं भाग जाते क्योंकि वहाँ बहुत सारे जुगनू आते थे, एकदम जमीन पर झुण्ड के झुण्ड, हम मुठ्ठियों में भर भर कर ले आते और एक एक करके छोड़ते। कम्पटीशन होता की किसका सबसे देर तक रहता है .......
आगे दूसरे भाग में......