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ख़त से उम्र क़ैद तक

ख़त से उम्र क़ैद तक

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तमाम ख़त जो उसने कभी मुझे लिखे वो कोरे के कोरे ही रहते थे,

इनकार मैं पढ़ नहीं सकता था

और इकरार वो नहीं लिख सकती थी...

बस कागज़ के आखिरी हिस्से पे उसका नाम लिखा रहता था।।

कुछ था जो मुझे उससे पूरी तरह अलग होने नहीं देता था....

कुछ अनकही सी बंदिशें थीं

और हमारी मुहब्बत को लगे श्राप को मुझसे पहले ही वो जान गयी थी,

शायद इसलिए आज एक गुड़िया अपने राजकुमार को चिट्ठियां नहीं लिखती..

खंडहर सा हो चुका मेरा दिल

आज भी एक हिस्सा चांदनी से सजा के रखे हुए है

की शायद वो कभी इसमें रहने वापस आ जाए..

पलकों के रोशनदान से झांकती मेरी नज़रें

आज भी उस राह को ढूँढ रही हैं

जहाँ मैंने उसके हाथों की मेहँदी की खुशबू को पहली बार महसूस किया था...

ये बात मगर अब किसी बहुत पुराने बिना दस्तावेज के मुक़दमे की तरह लगने लगी है,

जिसकी न तो वक़्त पे सुनवाई होती है और न ही तारीख़ लगती है..

सरे-आम एक कत्ल करने के बावजूद आज वो बा-इज्ज़त बरी है

और मैं एक नाम की उम्र क़ैद काट रहा हूँ..


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