वह व्यथा
वह व्यथा
किसी ब्लैक-होल के समान
सिकुड़ी हुई गहराई को
भाँप लिया था मैंने उस दिन
अरे यायावर !
तू महान है
तेरी व्यथा, तेरी ख़ुशी
रूप में सब कुछ की तरह
समाई सारतत्व गीता की तरह
तेरी क्रिया का मूल है जो
तेरे हिया का शूल है जो
है नहीं रूकती ये महफ़िल
और न रुकता कारवाँ,
ठहरता नहीं तू इक जगह
घुमक्कड़ है बड़ा पक्का
न झाँकता इधर-उधर
न निंदा करता
कुतरता भ्रम तुझे सत्य जान
पर तेरी पहचान को नकार नहीं पाता
निश्चित कर लेता तेरी नियति
चुपचाप अपने झोपड़े में
चला आता तू
जो मिलता खाता-पीता
न मिलता, चुप रहता
एक साँस भरता
आसमान की और देखता अपलक
रौशनियों की दीपमालिका
कुछ देर और घूमता
थक जाता
लौट पड़ता
फिर कल एक नया दिन होगा
आशाऐं, उम्मीदों, सपनों में
खो जाता
घर आकर देखता
सभी सोये हैं;
वह भी नीरव एक ओर पसर जाता
और सो जाता !