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महाप्रलय

महाप्रलय

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लाशें बिछी हुई हैं

जहाँ तक नज़र जाती है

सिर्फ़ लाशें ही लाशें

सुर्ख कफ़न में लिपटे शरीर

शांत पड़े हुऐ हैं

कोई हरकत नहीं

सन्नाटा चीखता है

बिलकुल निस्तब्धता

मानो यह दुनिया खाली हो गई है

कहीं कोई आवाज़ नहीं

मेरे सिवा जाने सब कहाँ चले गये

बगैर पहचान के सब मिट गये

कोई रहने वाला नहीं बचा यहाँ पर;

या ख़ुदा तेरी ख़ुदाई

मरते वक़्त तेरे बच्चों ने

दो ग़ज जमीन भी न पाई

कोई टुकड़ा बचा ही नहीं

कहीं कुछ भी नहीं !

इस चुप्पी में हजारों चीखें समाई हैं

आखिर ये दुनिया तेरी ही बनाई है

अचानक शरीर हिलने लगे

हलचल होने लगी

एक लाश का हाथ

कफ़न फाड़कर बाहर निकला

ईश्वर को शायद ये अच्छा न लगा

उसकी संताने यूँ ही मर जाऐं

अरे !

यह क्या..?

सब के सब हाथ उठने लगे

कुछ चेतना बाक़ी थी इनमें शायद

मैं बना था मूकदर्शक

क्या करिश्मा है यह !!

या किसी विभीषिका का मूर्त

आने वाली आपदा का स्वरुप

लोग चिल्ला रहे थे-

हमें बचाओ...

हम जीना चाहते हैं

जीवटता का चरम था यह

में सहन न कर सका,

अचानक देखा

एक लहर उठी

और सबको लील गई

सब शांत हो गया

अब कोई भी हाथ नहीं उठा

सब स्थिर हो गया

जो कुछ जैसा था वैसा ही रहा

पूर्ववत !

सिर्फ़ इतना ही लिखने के लिऐ

मैं   भी ज़िंदा रहा

फिर तड़पा

और मुक्त हो गया !!

 


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