माँ...मम्मा..
माँ...मम्मा..
आज देखा
गौर से उन्हें
बड़े दिनों बाद
वरना तो हर दिन
यूँही बीत जाता है
चौबिस घण्टे का साथ
पर गौर से देखने का
वक्त कहाँ मिल पाता है ,
देखा
बासठ वर्ष का
अनुभव दर्प से
चमकता हुआ चेहरा
आँखों के कोरों पर
वक्त से जूझती
महीन लकीरें
जो गवाह हैं
जाने कितने ही
दर्द भरे लम्हों की ,
जब हँसती हैं वो
तो मेरी आँखे में
चमक होती है
चाँद-तारों की...
और देखी
उनकी वही मुस्कुराहट
जो हर मुसीबत की घड़ी में
बन कर हमारे लिये
कवच सी
हरदम रहती है तैयार ,
कोई कितनी भी
ज़ोर से मारे
झटका तो लगता है
पर दर्द नहीं होता
न ही टीस उठती है....
सोचा
कैसा जादू सा असर है
उनके शब्दों में
तारीफ के दो लफ्ज़ उनके
कितना उकसातें हैं मुझे
हद से ज्यादा कर गुज़रने को ,
स्पर्श उनका
मरहम हो जाता है
चोट अंदरूनी हो
या के बाहरी
दर्द हवा हो जाता है ...
और सोचा
एक स्तंभ गिरने के बाद
लम्बे समय से
एक पैर पर खड़े रहकर
उनमें इतना बल
कहाँ से आया
कि सारी विषम परिस्थितियों को
एक नया रंग दिया
नये सोपान नये आयाम
देखने की नज़र दी हमें ,
हमें कुछ भी कर गुज़रने का
हर अवसर दिया...
तब पाया
केवल मेरी ही नींव
मजबूत नहीं धरी
बल्कि सैकड़ों को
भविष्य की आगवानी के लिये
मन से तैयार किया ,
सबको खूब पढ़ाया
एक माँ ने पूरी तरह
अपने नैसर्गिक गुण
'शिक्षिका' का फर्ज़ निभाया है
रीढ़ की हड्डी सारे शरीर का संतुलन बना कर रखती है ..है ना...!!