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Maittri mehrotra

Others

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Maittri mehrotra

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समय

समय

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मैं समय हूं।सदैव गतिमान। अविरल ,अविराम चलने वाला। क्या आपने कभी सोचा कि मैं कभी थका कि नहीं? रुका कि नहीं? यह कुछ अनुत्तरित यक्ष प्रश्न समक्ष उपस्थित होते हैं पर मैं तो शाश्वत चलने वाला, जीवन में श्वास की भांति, गीत मे लय, काव्य में अलंकार -रस और छंद, ताल में गति, ऋतु में बसंत, भक्ति में भाव, प्रियतमा की लगन, सागर में धैर्य, गिरी की ऊंचाई, कंदराओं की गहराई की भांति सदा से विद्यमान हूँ। मैं अचल, अप्रभावित, निर्विकार रूप से युग युगांतरों से अपने कार्य में संलग्न आपके अपनों में खड़ा हूं ....हां ! मैं समय हूं। कभी अच्छा तो कभी बुरा। मनुष्य ने ही मुझे युगों में बांटा। सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलयुग पर मैं... मैं तो अंत हीन हूं। मेरा आदि अंत नहीं है ।श्वासो के शुरू होने से जीवन समय का प्रारंभ व श्वासों के अंत से मानव जीवन का अंत !! परंतु सृष्टि में हर वस्तु का समय निर्धारित है । समय या काल के चक्र से कोई भी अछूता नहीं स्वयं विधाता भी नहीं। समय आने पर काम स्वत: हो जाते हैं। समय अनुकूल हो तो अक्षम व्यक्ति भी बलवान हो जाता है रंक राजा बन जाता है निर्धन धनी हो जाता है और प्रतिकूल समय भीष्म जैसे बलवान, अजेय युगपुरुष को भी विवश कर देता है युधिष्ठिर जैसे धर्मात्मा को भी अधर्म के सामने झुका देता है। भीम जैसा बलवान भी निर्बल हो जाता है ,अर्जुन जैसा दुर्जय धनुर्धर भी सिर झुका लेता है। समय के चलते ही भगवान विष्णु के अवतार मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम को वन जाना पड़ा ।पांडवों को भी वनवास झेलना पड़ा तो समय आने पर पाषाण बनी अहिल्या को स्त्री रूप प्राप्त हुआ। समय आने पर ही शबरी को उसके चिर प्रतिक्षित प्रभु श्री राम के दर्शन हुए। काल के चक्र के चलते ही भगवान को भी मानव अवतार ले पृथ्वी पर अवतरित होना पड़ा। जनार्दन भगवान श्री कृष्ण का जन्म हुआ। कारागार के द्वार स्वत: खुल गए, पहरेदार सो गए। अनुकूल समय का लाभ ले वासुदेव श्री कृष्ण को कारागार से बाहर ले जाने में सफल हुए।

समय ने ही खान में पड़े कोयले को हीरे में परिवर्तित कर दिया और मनुष्य की कंचन काया को आयु बढ़ने पर पंचतत्व में विलीन कर दिया। मैं समय.... एक होते हुए भी सभी के लिए एक सा नहीं। जिसने मुझे पहचाना मैंने उसे कालजयी पुरुष की गरिमा प्रदान की और जिसने मुझे,मेरे स्वरूप को, मेरे अस्तित्व को नहीं स्वीकारा, नहीं अंगीकार किया वह विलुप्त हो गया ...समा गया... अनंत अंतरिक्ष में अस्तित्व हीन हो ।

मेरी इन आंखों ने सृष्टि का हर रूप देखा है कहीं अछूती प्रकृति का सौंदर्य तो कहीं प्रलय का प्रचंड रूप, कहीं धरती पर प्रस्फुटित प्रथम अंकुरण तो कहीं दावानल का भयंकर रूप, कहीं सागर में आकाश से होड़ करती लहरों का तूफान तो कहीं बड़वानल, कहीं कामदेव रति का युगल प्रणय नृत्य तो कहीं शिव का समस्त सृष्टि का विध्वंस कर देने वाला तांडव, कहीं मां सरस्वती की वीणा की अमृतस्रावी झंकार तो कहीं कृष्ण के पंचजन्य से युद्ध की उद्घोषणा। सुख और दु:ख समान रूप से मेरे साथ चलते हैं क्योंकि मैं.... मैं समय हूँ। विधाता ने स्वयं को समय के बंधन में बांधा। पृथ्वी पर अवतरित हुए अवधि पूरे होने पर पुनः अपने धाम को गमन किया पर हाय रे ! भाग्य!! मैं इतना बलवान, सर्व समर्थ, पर मेरी विडंबना तो देखो मैं स्वयं से बंधा युगों युगों की छवि अपने स्मृति पटल पर अंकित करता हुआ अपनी अनंत यात्रा अपने निर्धारित समय तक करता रहूंगा.... करता रहूंगा। काल का यह चक्र अनवरत चलता रहेगा। पता नहीं यह मुझे जीवन का वरदान है या अभिशाप!!!



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