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Vani Karna

Others

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Vani Karna

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शुरुआत

शुरुआत

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बड़ा ही धनाढ्य घर ,इतना पैसा की संभालना मुश्किल । ऐसे ही बड़े घर की बेटी मैं सविता। मेरे पिता श्री सुरेंद्र शर्मा जी की एक बड़ी सी फैक्ट्री बहुत सारे एक्सपोर्ट इम्पोर्ट के कारोबार ,संयुक्त परिवार सबकुछ था मेरे पास। बस माँ नहीं थी। बचपन में ही गुजर गई थी । इस कारण बहुत लाड़ प्यार से पली।

किशोर अवस्था तक आते आते बुरी संगत कहे या फिर उम्र का असर मैं सूरज के प्यार में पड़ गई। मेरे ही स्कूल में पढ़ता था। मीठी बातों के जादू में पड़ गई। परिवार की इज्जत मां मर्यादा भूल गई। कॉलेज के फर्स्ट ईयर में ही हम दोनों ने भाग कर शादी कर ली।


आनन फानन में खबर पूरे शहर में फैल गई। पिता तक भी। खबर पहुंची। पिता ने इस रिश्ते को मंजूरी नहीं दी । मुझे घर से निकाल दिया।


छोटी उम्र में ही माँ को खो दी थी। लोग कहते माँ नहीं है बिगड़ेगी ही। आखिर मुझे चोट तब लगी जब सूरज मुझे छोड़कर एक दिन अचानक गुम हो गया, बहुत खोजी नहीं मिला। मैं माँ बनने वाली थी। एक तो मेरी छोटी उम्र और मेरा माँ बनना वो भी घर से दूर। पिता ने सारे रिश्ते तोड़ लिए, परिवार के बाकी लोग भी आगे नहीं आये। पिता ने कहा मेरी कोई बेटी नहीं, जिसे अपनी। पिता का जरा भी ख्याल नहीं आया मान मर्यादा मिट्टी में मिला दी ऐसी बेटी मुझे नहीं चाहिए।

अब मैं बेसहारा थी, घर से निकलकर चल तो दी लेकिन कहाँ जाऊं ये नहीं समझ पा रही थी।

तभी जैसे भगवान के रूप में हरी काका मेरे सामने आए, जो मेरे घर में नौकरी करते थे। कहने को नौकर थे ,लेकिन उस विपत्ति में उन्होंने मेरा हाथ पकड़ा और कहा चल बेटा मेरे घर । आज से तू मेरी बेटी मैं तेरा पिता।

मैं तो गले लगकर सिसकने लगी। इस छोटी उम्र में लगा कितने दुख झेल ली । हरि काका मेरी तरफ उठने वाली प्रत्येक आंखों के बीच ढाल बन गए थे । उन्होंने मेरे घर क्या कहूँ उस घर को, उस घर में नौकरी छोड़ दी। उनका भी कोई नहीं था, शायद भगवान की मर्ज़ी थी हम दोनों का मिलना।

उन्होंने मुझे पिता का सहारा दिया । एक बेनाम लावारिस लड़की को पिता का नाम मिलना समाज मे रहने के लिए बहुत बड़ा सहारा होता है। मुझे एक बेटा हुआ, दोनों ही हरि काका की छत्रछाया में रहने लगे।

हरि काका मेहनत मजदूरी करने लगे, मेरी जरूरतों को पूरा करने के लिए। कहते उस घर जितनी तो मैं नहीं दे सकता तुम्हें लेकिन तुम चिंता मत करो मुझसे जितना होगा उतना करूंगा पर तुम्हें कोई कष्ट नहीं होने दूंगा।


मैं सोचती जरूर कोई पुण्य किये होंगे उस जन्म में जिसके फलस्वरूप आज हरि काका, नहीं मेरे पिता मुझे इस तरह मिले।


पुनर्विवाह की बात भी चलाई उन्होंने लेकिन अब देर से ही सही मैं कुछ कुछ। समझने लगी थी। बेटे को छोड़कर मैं शहर आ गई।

मेरे नए पिता के लिए कुछ करना था ये सोचकर मैं दिन रात पढ़ने लगी।।

लगातार दो बार असफलता के बाद तीसरी बार मुझे सफलता मिली। मैं भारतीय प्रशासनिक आयोग में अधिकृत के पोस्ट पर चुनी गई थी।

चूंकि पढ़ाई के कारण शहर में थी। पिता से दूर थी। आज गांव लौट रही हूँ अपने पिता के पास । सोच रही हूँ बहुत बाते करनी है उनसे । जाते ही बोलूंगी पिताजी आपकी बेटी शासकीय अधिकारी बन गई आज से हम सबके दुख के दिन गए, अब अच्छे दिन आएंगे पिताजी, ये कहकर गले लग जाऊंगी। अब तो पिता जी बहुत बूढ़े हो गए होंगे 5 साल से दूर हूँ उनसे । सोचती जा रही थी आंखों से आंसू बह रहे थे जैसे कह रहे हो अब तक जो था फसाना था अब हक़ीक़त होने की बारी है । शायद जीवन इसी का नाम है।

अब तो अंतिम इच्छा है मैं अपने पिता की बुढ़ापे की लाठी बनूँ और उनका अंतिम संस्कार अपने हाथों से करूँ। सोचते सोचते कब बस रुकी गांव के आगे पता ही नहीं चला । कंडक्टर ने आकर कहा आप कहा उतरेंगी ये लास्ट स्टापेज है।

ये लास्ट स्टापेज नहीं था मेरे जीवन की शुरुआत थी, हक़ीक़त से भरी।



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