पैसों का पेड़
पैसों का पेड़
बात सन् 1969 की है हम कलकत्ते के बेलूर मठ में रहा करते थे , तीन साल की छोटी उम्र बुखार से तपता बदन और ग़फलत में मैं एक ही रट लगाए जा रही थी " अम्मा मेरे पास एक भी पैसे नही हैं " काम में व्यस्त अम्मा झुंझलाती हुई आ कर मुठ्ठी भर फुटकर पैसे रुमाल में बाँध कर तकिये के नीचे रख फिर काम में लग जाती हैं ( ये काम वो मेरे बीमार रहने तक रोज़ करतीं ) और मैं उन पैसों को छूती हुयी स्वर्ग में विचरने लगती । उस वक्त उन पैसों को छूने का जो आनंद था आज भी उसी तरह महसूस करती हूँ...सब आते मुझे देखने बाबू ( पिता जी को हम बाबू कहते थे ) की एंगलोइंडियन स्टेनो टाईट स्कर्ट और पेंसिल हील पहने टक - टक करती हुयी आती मैं बहुत मुग्ध हो कर उसको देखा करती , धीरे - धीरे मैं ठीक होने लगी ठीक होते ही फिर वही धमा - चौकड़ी शुरू... इन सब के बीच मैं एक काम कभी नही भूलती खेलते - खेलते मैं घर के अंदर जाती रुमाल में से पैसे निकालती बाहर आ उन पैसों को पीछे पीपल के पेड़ के नीचे गाड़ आती और खेलने लग जाती , पैसे कम होने लगे तो अम्मा ने पूछा तो गर्दन तुरंत ना में हिल गई " मुझे नही पता अम्मा " उस छोटी उम्र में भी झूठ बोलने में बुरा लगता था लेकिन उस झूठ के पीछे एक बहुत बड़ी खुशी छुपी थी सोचती कि आज गुस्सा हो लो अम्मा जब पैसों का पेड़ उगेगा तब सारा गुस्सा फुर्र हो जायेगा ।
नही पता किस खाद की कमी रह गयी थी मैने तो पूरी शिद्दत के साथ पैसे बोये थे , अम्मा को दिखाने के लिए आज भी उस पेड़ के उगने का इंतज़ार है और मुआ पेड़ है की उगता ही नही ।