Sugan Godha

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4.6  

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नारी समर्पण है

नारी समर्पण है

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तलाक के बाद मीना नये घर में रहने चली गयी, घर काफी बड़ा था और रहने वाली अकेली जीवन में भी तो अकेलापन ही रह गया था। अपने सुख दुःख बांट सके ऐसा कोई न था उसके साथ सोचा काम के लिए किसी को रख लूँ कम से कम खामोशी तो दूर होगी पड़ोस में किसी से कहा उसने अगले ही दिन एक औरत को भेज दिया। 

अरे ! आ गयी तुम। जी मेम साहब आप मुझे काम और पगार बता दीजिए में अभी से काम पर लग जाउंगी, हाँ बता दूंगी (चाय का कप पकड़ते हुए) अभी तो आयी हो अपने बारे में तो बताओ ।

जी मेम साहब में रुक्मणी यहाँ के सब घरों में मैं ही काम करती हूं खाना भी बनाती हूँ और बाकी काम भी। अच्छा तो रुक्मिणी आज से मेरा भी बना दिया करना तुम भी मेरे साथ ही खाना अब से..।

और कौन कौन है घर में कितने जन का बनाना है, कोई दिख नहीं रहा आप अकेली रहती हो क्या मेम साहब !

मीना की नजर रुक्मणी के हाथ पर पड़ी और बीच में ही टोकते हुए ये क्या हुआ कैसे लगी ये चोट ( हाथ छुपाते हुए) कुछ नहीं बस ऐसे ही, बताओ क्या हुआ और सच बताना ये चोट तो जैसे किसी ने मारा हो वैसी है तुम चुप क्यों हो मैं सही कह रहीं हूँ ना ! जी वो मेरा पति शराब पी लेता है तो कभी- कभी आप छोड़िए ये सब। मीना ने ज्यादा जोर नहीं दिया और काम समझा दिया अब रुक्मिणी रोज आती है सारा काम कर मीना से बातें भी करती हैं जिससे वो एक-दूसरे को समझने लगती है, मीना का अकेलापन भी दूर होने लगा, कुछ ही दिन बाद रुक्मिणी के हाथ और गर्दन पर वैसे ही निशान थे जिसे वो छुपाने की कोशिश में नाकामयाब रहती है इस बार मीना ने अपनेपन से पूछा तो, रुक्मिणी भी भावुक हो बता देती हैं कि उसका पति किसी न किसी बात पर उसे मार ही देता है, 

तुम ये सब क्यों सह रही हो औरत हो कोई गुलाम नहीं,

आधी जिंदगी तो निकल गयी मेम साहब बाकी की भी निकल जाएगी आदमी का क्या लोग ताने तो मुझे देंगे मेरे माता-पिता के संस्कारों पर उंगली उठेगी और फिर जैसा भी है पति, औरत को तो हमेशा समर्पण और प्रेम भाव से ही रहना पड़ता है सब सहना पड़ता है ।

नहीं रुक्मणी अत्याचार करने वाले से बड़ा दोषी सहने वाला होता है तुम पुलिस के पास शिकायत करो और इन्साफ़ मांगो , तुम अपने हक के लिए आवाज़ तो उठाओ , बुरा न मानो तो एक बात पूछू मेमसाहब? हाँ पूछो...। अपने अपने पति को क्यूँ छोड़ दिया क्या वो आप पर हाथ उठाता था ? नहीं हमारा रिश्ता बस समझौता बन गया था सास ससुर थे तब तक मजबूरी में निभाया उनके जाने के बाद जो थोड़ा बहुत प्रेम था वो भी खत्म हो गया उनकी जिंदगी में कोई और थी तो ज़बरदस्ती कब तक बांध के रखती उनकी खुशी के लिए खुद से आज़ाद कर दिया। अजीब बात है न मेमसाहब आप मुझे समझा रहीं हैं जबकि आपने खुद अपना हक किसी और को दे दिया सच तो ये है की आप भी तो समर्पित है अपने पति के लिए क्या आप में ताकत नही अपने हक के लिए लड़ने की ? मेमसाहब हम औरते कभी अपने बारे में सोचती ही कहाँ, अपना सारा जीवन औरों के लिए न्यौछावर कर देती हैं। शक्ति होते हुए भी कुछ नही करती बस समर्पण की मूर्त बनी रहती है। मीना के पास कहने को कुछ नहीं था रुक्मिणी ने आज उसे औरत का सही रूप दिखाया था वो अपने पढ़े हुए ज्ञान को खंगालने लगती है मगर उसे ऐसा कोई शब्द कोई परिभाषा नही मिली जो रुक्मणी की बात को खण्डित कर दे मन ही मन सोचती है सच ही तो कह रही है हर औरत अपने परिवार के लिए अपनी ख़ुशियाँ छोड़ देती समर्पण ही तो नारी है, न जाने कब हमे समझा जाएगा और हमारे समर्पण का फल मिलेगा ।

दोनों एक-दूसरे को देखती रहती है घर में फिर खामोशी छा जाती है 



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