Ayushi Dadheech

Others

3.7  

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मेरी पहली पदयात्रा

मेरी पहली पदयात्रा

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आज तो पूरे परिवार का शाम का भोजन मौसी के घर पर था।


सभी एकत्रित हुए मिलजुल कर भोजन किया और हम सब बाते करने लगे तभी अचानक मेरी माँ ने कहा कि गढ़बोर चारभुजा की पैदल यात्रा करनी है तो वहा चले क्या ,तो सभी ने एक बार तो हा कर दी। 


सभी यात्रा की योजना बनाने लगे कि सुबह कितनी बजे निकलना है कैसे क्या करना है, यहाँ से कितना दूर है।

सब कुछ जैसे ही तय हुआ की एक -एक करके कुछ बहाने बनाने लगे ना जाने के।


ये सब कुछ दो घण्टे तक ऐसे ही चलता रहा कोई चलने के लिए हाँ करता तो कोई ना करता, समय बितता गया और वापस सभी अपने घर जाने लगे।


सभी ने एक दूसरे को शुभ रात्रि कहा और तभी मेरी भाभी ने कहा कि आपके भैया ने हाँ कर दी तो मैं चलने के लिए तैयार हूँ , फिर कुल मिलाकर हम पाँच ने हाँ की जाने के लिए। 


घर पर आए तब तक रात के दस बज गये थे, फिर थोड़ी देर बाद हमने जो व्हाट्सएप्प ग्रुप बनाया था उसमे मैसेज आया कि कौन-कौन जा रहा है कल, तो उसमे नाम आए - ( माँ, मेरी दोनो भाभी , मोहित और ज्योति )


अब हमने फटाफट से पैकिंग करना शुरू किया और सभी आवश्यक सामान ले लिया । हम जल्दी सो गये क्योकि सुबह घर से जल्दी निकलना था ।


अगले दिन सुबह जल्दी उठकर हम सब समय पर तैयार हो गये थे और भाभी ने पाथेय की भी व्यवस्था अपने साथ लेली थी ।


हम पाँचों आठ बजे भीलवाड़ा से देवरिया के लिए बस से रवाना हो गए थे। हमें हमारी यात्रा देवरिया जो कि मेरा ननिहाल है वहाँ से शुरू करनी थी इसलिए हम पहले वहाँ पहुँचे । रास्ते में हमने कचौरी का नाश्ता कर लिया था। वैसे मैं आपको बताना भूल गयी कि सर्दी का मौसम था पर आज कुछ हल्की ही ठण्ड थी तो हम आराम से बिना परेशान हुए ये यात्रा कर सकते थे ।


सुबह के दस बजकर पन्द्रह मिनट पर हम नाना -नानी से और मेरी छोटी मामी जी से मिलकर वहाँ से रवाना हो गये ----- अब हमारी पदयात्रा प्रारंभ हो चुकी थी , हमने 'जय चारभुजा नाथ' का जयकारा लगाया और अपने कदमों को अपनी मंजिल की ओर बढ़ाने लगे ।


कुल 65 किलोमीटर हमको चलना था , पहले कभी इतना चले नहीं थे फिर भी मन में ठाना था ठाकुर के दर्शन करने का ।गांव के तालाबों की पाल के रास्ते को हमने अपनी राह का साथी बनाया था। माँ के कदमों की चाल को देख हमने अपने कदमों की चाल को बढ़ाया था। बातों ही बातों में रास्ता कटता गया एक गाँव से दूसरे गाँव की और नजदीक आते गये । रास्ते में झाड़ियों के मीठे बेर का लुत्फ उठाते गये ।सूरज की वो छलनी सी छुप ,हल्की- हल्की ठण्ड की वो लहरे , मिट्टी की वो सोन्धी सी खुशबु मन को मचल रही थी । रास्ते में कोई मिलता तो उससे हम हमारी मंजिल का पता पूछते चलते, कोई कहता आथूणो ही चाल्या जाज्यो। 


दोपहर के करीब तीन बजे हम आमेट से 10 किलोमीटर दूर थे। अब हमने बड़े ही आराम से भोजन किया , और कुछ फोटो भी खिचे जो हमें व्हाट्सएप्प ग्रुप में भेजने थे। हम चलते गये शाम ढलती गयी ।हमारी आज की रात का आशियाना आमेट में एक रिश्तेदार के यहाँ था।


हम लगभग रात के आठ बजे उनके घर पहुंच गए थे।

उन्होंने भी बड़े ही सत्कार के साथ हमारा स्वागत किया।

लकड़ी का अलाव जलाया गया, हमने भी उसका पूरा लुफ्त उठाया। बातों में वक्त का पता ही न चला ।


हम अगली सुबह जल्दी उठकर तैयार हुए और अपनी यात्रा के लिए फिर से चल दिए। उस दिन 26 जनवरी थी तो चारों और तिरंगे फहरा रहे थे ।अब हमारा रास्ता अरावली की चोटियों से होते हुए गुजर रहा था ।कभी घुमावदार मोड़ तो कभी ऊपर नीचे चढ़ती सड़कें।


हमें तो उन पर चलने का बड़ा ही आनंद आ रहा था ।

क्योंकि हमारे प्रभु ने हमें शक्ति दी हुई थी।

थकने का इसलिए एहसास न हुआ क्योंकि साथ चलने वाला अपना जो था ।

रास्ते में आने वाले गाँवों के नाम बड़े मजेदार थे।

किसी गाँव का नाम 'आसन' था तो किसी गाँव का नाम 

'नीम का खेड़ा 'था । 


एक मजे की बात तो ये है कि उस गाँव की सड़कों के दोनों तरफ केवल नीम के ही बहुत से पेड़ लगे हुए थे।

हम रास्ते में होटल पर रूके खाना खाया और कुछ मिनट आराम करके फिर हम वहाँ से रवाना हुए। 


धीरे-धीरे शाम का वक्त होने लगा , ठण्डी सी हवा चलने लगी ।अब हमने भी अपनी रफ्तार को तेज करी क्योंकि हमें भी जल्दी पहुँचना था। अन्धेरा होने लगा था , मन में एक ख्वाब था कि प्रभु के दर्शन हो जाये।

चलने का काम था, थकने का नाम न था। चलते चलते कब पूरा रास्ता पार हो गया पता ही ना चला।

हम शाम के सात बजे प्रभु के दरबार में पहुँच गये थे ।


सभी भक्तों ने मिलकर प्रभु के भजनों का आनन्द लिया , फिर हमने प्रभु के दर्शन किए। दर्शन करने के बाद हम लोगों ने कुल्हड़ की चाय - दूध का लुफ्त उठाया।


तब -तक हमारी गाड़ी भी आ चुकी थी अब हमें वहाँ से निकलना था। गाड़ी में बैठते ही मैं तो अपनी भाभी की गोद में सिर रखकर सो गई , उन्होंने भी मुझे लोरी गा कर सुला दिया। मुझे तो वापस आते वक्त के रास्ते का पता ही ना चला ।रात के करीब ग्यारह बजे हम भीलवाड़ा आ गये थे। मुझे तो इस पदयात्रा में बहुत ही मजा आया था क्योंकि हम पाँचों का अपना ही मजा था।


उन सुनसान सी सड़कों पर चलना मुझको अच्छा लगा था। 



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