Nidhi Garg

Others

4.7  

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मेन्सेस: अन्त नही एक नई शुरुआत

मेन्सेस: अन्त नही एक नई शुरुआत

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मेन्सेस (सामान्य बोलचाल की भाषा मे पीरियडस या महीना) भारतीय सभ्यता का एक बहुत ही बड़ा "टेबु "मामला है और Menarhe या यजोदर्शं (पहला पीरियड) का तो मतलब है कि लड़की की स्वतन्त्रता समझो; गयी। हर स्त्री की menarche से सम्बंधित अपनी एक अलग कहानी होती है । जो अबोध लड़की बैठने उठने के तौर तरीके सही से नही जानती है वो अचनक से menarche के बाद बड़ी हो जाती है। मैट्रो सिटी की लड़कियाँ शायद इस बात से वाकिफ ना करें पर अभी भी छोटे शहरो मे और छोटे कस्बो में बच्चियाँ आज भी सड़क पर ही दौड़ दौड़ कर खेला करती हैंं। और अचानक उनका एक दिन घर से निकलना बन्द या कम हो जाता है। या फिर उनको उन दिनो में अचार ना छूने, किचन से दूर रहने, खट्टा ना खाने जैसी हिदायतें भी दी जाने लगती हैं। जो सुनने मे अटपटी तो लगती ही हैं साथ ही सालों से बिना तथ्यों के यूँही अग्ली पीढ़ी को पास भी की जा यह कहानी भी menarche के इर्द गिर्द ही घुमती है। कहानी एक अबोध लाली की है जो कि सत्तर -अस्सी के दशक को ध्यान मे रखकर लिखी गयी है। लाली अभी खुद menarche से शायद कुछ दिन दूर है पर अपनी सहेली के व्यवहार मे अचानक आये बदलाव से परेशान है। आइये देखते हैं कैसे लाली अपनी सहेली की उलझन सुलझाने मे मददगार साबित होती है।


"सुप्रिया सुप्रिया आना चल पकड़म पकड़ाई खेलते हैं"।उतावले स्वभाव की पाँचवी की छात्रा लाली ने कहा। सुप्रिया जो कि उसकी पक्की सहेली व सहपाठीका भी है, ने अनसुना कर दिया। सुप्रिया दो दिन से कुछ गुमसुम है। यध्पी सुप्रिया भी लाली की भान्ति ही चंचल स्वभाव की है परंतु दो दिनो से वो बस स्कूल आती है और बहुत असहज रह्ती है। लाली को अपनी उम्र के अनुसार बस खेलने की पड़ी है। वह सुप्रिया से नाराज़ है।


छुट्टी के बाद जब लाली की माँ उसे रोज की भान्ती लेने स्कूल पहुँची तो लाली दौड़ कर माँ (कविता जी) से जा लगी और बोली "देखो मम्मी ये सुप्रिया मेरे साथ दो दिन से खेल ही नही रही है। कित्ना भी बोलो बस ऐसे ही खड़ी रह्ती है"।

" फिर लड़ लिये होगे तुम दोनों ", कविता जी बोली। 

फिर उम्होने सुप्रिया से पूछा,"बेटा आज पापा नही आए लेने?"

"नही आंटी। आज पापा ने गाड़ी भेज दी है", कहकर सुप्रिया गाड़ी मे बैठ कर चली गयी।

पर लाली अभी भी उसी बात पर अड़ी है " मम्मी, मै अब सुप्रिया से कभी बात नही करूँगी। वो मेरे साथ आजकल स्कूल मे खेलती ही नही है। जब कहो तब चिड़ जाती है"। पर लाली की माँ ने इस बार भी उसकी बात को गम्भीर्ता से नही लिया और बोली "बेटा उसकी तबियत ठीक नही होगी"।


अबोध लाली ने ये बात दिल पर लगा ली। और अगले दिन बस्ता रखते ही सुप्रिया के पास जा पहुंची "मुझे पता है तुझे क्या हुआ है। तेरी तबियत खराब है ना। मुझे मेरी माँ ने बताया"। ये सुनकर सुप्रिया चौंक गयी। बोली "आंटी कों कैसे पता"। "अरे मम्मी को सब पता होता है, पागल" लाली बोली। सुप्रिया ने अफसोस जताया,"अच्छा मेरी मम्मी नही है ना। बाकी कोई कुछ बताता ही नही"।


अब सुप्रिया कुछ सहम गयी। उसे लगा कि क्या वह वाकई बीमार है। सोचने लगी कि पापा कुछ बताते भी नही। बस कहते हैं अब तुम कूद्ना वूद्ना छोड़ दो। और पता नही कल दादी से फोन पर कुछ कह रहे थे। और तो और दादी ने भी फिर फोन पर पानी की टिकीया खाने से मन कर दिया मुझे। उपर से पेट मे दर्द भी है। मै मरने वाली हूं क्या? सुप्रिया ये सोच ही रही थी कि घंटी बज गयी और सब प्रेयर के लिये मैदान मे इकट्ठे हो गये। 



सुप्रिया भी कतार मे लगी लेकिन पी.टी शुरु होते ही उसके पसीने छूट गये। दादी ने कहा था," कूद्ना मत, झुकना मत"। और ये पी. टी मास्टर तो शुरु हो गये। कैसे कहुँ कैसे मना करुँ। तभी पी.टी मास्टर ने उसे टोका "यू टॉल गर्ल, सही से झुको"। सुप्रिया डर गयी और थोड़ी झुकी। वो फिर बोले, "आर यू लिसनिन्ग और नोट। डू इट प्रॉपर्ली"। अब सुप्रिया रोने लगी। सर को कुछ समझ नही आया और उन्होने सुप्रिया से कहा "आर यू ओके ? गो बैक टू योर क्लास "। सुप्रिया एक हाथ से स्किर्ट का घेर हाथ मे दबा कर क्लास मे वापस आ गयी।



सुप्रिया की माँ का देहान्त हो चुका था और उसके पितजी उसी एक्सिडेंट मे अपाहिज हो गये थे। सुप्रिया की देखभाल पिछले 5 साल से उसकी दादी कर रही थी पर अभी कुछ दिन पहले ही वो भी गावँ चली गयी थी। बेचारी सहमी सुप्रिया को पता ही नही था कि वो किशोरावस्था मे कदम रख रही थी।


उधर सत्तर- अस्सी के दशक के बाप बेटी का रिश्ता कुछ खास खुला नही हुआ करता था। ये वो दौर था जब स्कूलो मे भी इस विषय पर बात नही होती थी। यहां तक की घर के बेटों को तो इसकी भनक भी नही लगने देते थे। उस समय के लगभग सभी बच्चे सैनिट्री पैड के प्रचार मे उस नीली श्याही को देख कर उसे श्याही सोख्ता समझते थे। ऐसे दौर मे किशोरी हुई सुप्रिया को लगने लगा था कि वह मरने वाली है। और ऐसे समय मे चित्त पर लगे घाव बड़े गहरे होते हैं और अक्सर बच्चो मे अवसाद का कारण भी बनते हैं।



लाली ने प्रेयेर टाईम मे हुई सारी बाते अपनी माँ को बताई। बातो से सुप्रिया के बारे मे एक अन्दाज़ा लगा लेने वाली कविता जी ने अगले दिन लाली के स्कूल जाकर इस विषय मे प्रिंसिपल से चर्चा की। फिर क्लास की बियोलोजी की टीचर को यह निर्देश दिये गये कि कक्षा 5 के सभी सेक्शनो में दो दिन का लेकचर सिर्फ मेन्सेस पर देना अनिवार्य होगा। साथ ही साथ लड़कों को भी इस विषय की जानकारी पूर्णतयः देनी होगी ताकि इस विषय को वह गम्भीरता से ले और इसे मज़ाक का विषय न बनाये। सबको यह जानना होगा कि यह एक सामान्य शारीरिक और मानसिक बदलाव है।

दो दिन बाद लाली स्कूल से आयी तो बोली "पता है मम्मी आज हमे क्या पढ़ाया टीचर ने"। कविता जी ने अंजान बनते हए कहा, "हम्म क्या पढ़ाया"। 



फिर लाली अपनी मम्मी को अपने द्वारा अर्जित ज्ञान को सुनाने लगी और अन्त मे बोली " और इसिलिए मम्मी सुप्रिया को शायद ब्लीडिंग हो रही है। पर टीचर ने बताया है कि हमे ऐसे मे रुकना या घर पर पड़े नही रहना है। साफ सफाई रखनी है और सैनिट्री पैड्स यूज़ करने हैं। साथ ही साथ सुपाच्य भोजन खाना है और खूब सारा सोना है"। 

"अरे वाह, ये तो बहुत सही चीज पढ़ाई गयी तुम्हे", कविता जी खुश होकर बोली।

 "ये बताओ सुप्रिया अब कैसी है", उन्होने आगे पूछा ।

" मम्मी अब वो ठीक है। आज हमने साथ खेला भी और उसने पीटी भी की", लाली खुश होकर बोली। 


सत्तर अस्सी के दशक की ये कहानी शायद आज की लडकियों को बहुत अजीब लगेगी क्युंकि अब ये ज्ञान सामान्यतः सभी स्चूलों मे दिया जाने लगा है। पर ये उस समय की मध्यम वर्ग की हक़ीकत है। निचले वर्ग की कन्याओं की स्थिति क्या होती होगी उसकी कल्पना कर पाना ही असम्भव है। पूर्ण जानकारी के अभाव मे सुप्रिया को मेन्सेस शुरु होना एक बिमारी का आगाज़ लग रहा था। ना जाने सही शिक्षा के अभाव मे ऐसी कितनी ही किशोरियाँ अवसाद से ग्रसित रहती होंगी। किशोरावस्था जीवन का वो एक बहुत ही नाजुक दौर होता है जब अपने बच्चे को हम सही शिक्षा देकर उसके भविश्य को उज्ज्वल बना सकते हैं। या फिर आधे अधूरे ज्ञान मे रखकर उसे अपनी जिज्ञासा को गलत तरह से शान्त करने का अवसर प्रदान कर सकते हैं। फैसला हमे करना है।



अब जब पेडमैन मूवी जैसा सिनेमा आ चुका है और इस विषय मे जागरुकता भी फैल रही है तब भी हम मे से बहुत कम ही अपने बच्चो के साथ ये मूवी गये होंगे। दिलचस्प बात ये है कि पकिस्तान और कुवैत जैसे देशो मे ये मूवी बैन भी थी। यहां भारत मे भी बहुत से लोगों से ये बात सुनने को मिली कि कैसे जाते ये मूवी बच्चो के साथ? फिर बच्चे सवाल करते हैं या वो इस विषय पर बच्चो से खुल कर बात नही कर सकते। बस यही गलती शायद हम कर जाते हैं। बच्चा सबसे पहले अपने माँ-बाप के पास ही अपने सवाल लेकर आता है। वहाँ से संतुष्ट ना होने पर ही उसका कौतूहल उसे भटकाने के लिये मजबूर कर देता है। बच्चे को उसकी समझ के हिसाब से सही जवाब देना ही माँ बाप का सही कर्तव्य है । 

आइये सामान्य भाषा मे पीरीड्स कहे जाने वाले इस शब्द को "टेबू" ना बनाकर एक सामान्य से शारीरिक-मानसिक बदलाव की तरह देखा जाये। किशोरियों को ये बताया जए कि यह उनके लिये जीवन का अन्त नही बल्कि नये जीवन को जन्म देने की सम्भावना की एक शुरुआत है। 

मेन्सेस: अन्त नही एक नई शुरुआत है।


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