हमारी यात्रा के हादसे-१
हमारी यात्रा के हादसे-१
वैसे तो आजकल कुछ भी कहना मुश्किल है कि कब, कहाँ, क्या घटित हो जाय और हम-आप किस मुसीबत में फँस जाय। यह भी उतना ही सत्य है कि हर ऐसी स्थिति-परिस्थिति में कोई न कोई सहायक, कोई न कोई बचाने वाला या मददगार मिल ही जाता है। कम से कम मेरा तो ऐसा ही अनुभव है। इस तरह परमात्मा की व्यवस्था पर मुझे खुशी और संतोष तो होता ही है,अक्सर मैं चमत्कृत हो उठता हूँ कि किस तरह उसकी निगाह में यह पूरी कायनात रहती है।वह कभी सोता नहीं, कभी आराम भी नहीं करता और कभी भी उसकी व्यवस्था में त्रुटि नहीं होती। लगता है, मुझ पर उसकी कुछ अधिक ही कृपा-दृष्टि है,तभी तो जहाँ कहीं, किसी समस्या में पड़ता हूँ, वह पहले से ही उपस्थित मिलता है।
मैं अक्सर उसे आत्मीयतापूर्वक उलाहना देता हूँ कि बचाना ही है तो ऐसी दुःसह परिस्थिति में डालते ही क्यों हो? जब डाल ही दिये तो फिर बचाते क्यों हो?वह केवल मुस्कराता है और मुझे उसकी इस मुस्कराहट में ही सारा समाधान मिल जाता है। यह हमारी-उसकी साझेदारी का मामला है, प्रेम और विश्वास का मामला है। कभी-कभी, भले ही मुझे कुछ समझ में नहीं आता, लगता है, उसे मेरा सबकुछ पता रहता है। ऐसे हाज़िर होता है मानो पहले से वहीं, उसी जगह खड़ा मिलता है जहाँ मुझे समस्या में पड़ना होता है।
कार्यक्रम कुछ ऐसा बना था कि २०१९ के नवम्बर की ९ तारिख शनिवार की टिकट थी। दिन के साढ़े ग्यारह बजे फ्लाईट थी जिसके लिए घर से सुबह ९ बजे निकलना था और दो घंटे पहले एयरपोर्ट पहुँचना था। समय से मैं अपनी धर्मपत्नी जी के साथ एयरपोर्ट पहुँच भी गया। कहीं से सूचना मिली कि बंगाल की खाड़ी में "बुलबुल" तूफान आने वाला है जिसका प्रभाव तटवर्ती क्षेत्रों पर बुरी तरह से पड़ने वाला है। देखने में मौसम में कोई हलचल नहीं थी और हमारी फ्लाईट अपने समय से दिन के एक बजकर पन्द्रह मिनट पर कोलकाता के सुभाष चन्द्र बोस अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर पहुँच भी गयी। सिंगापुर के लिए अगली फ्लाईट रात के आठ बजकर चालिस मिनट पर थी। हमारे पास भरपूर भोजन की व्यवस्था थी और बीच में आराम करने के लिए पर्याप्त समय भी।एयरपोर्ट की सुन्दरता और चहल-पहल के साथ-साथ हम ईश्वर की कृपा की अनुभूति से भी लबरेज थे। सिंगापुर की यह हमारी दूसरी यात्रा हो रही है, मन में उत्साह होना स्वाभाविक है। हमारे जैसे निम्न-मध्यम वर्गीय व्यक्ति के लिए ऐसा सुअवसर मिलना परमात्मा की कृपा के अलावा सम्भव ही नहीं है। किसी सपने के पूर्ण होने जैसा ही है। ऐसे में ईश्वर में विश्वास का होना स्वाभाविक है।
पहले मुझे उसपर कोई विश्वास नहीं था। विश्वास की बात तो दूर, मैं उसे जानता भी नहीं था। घर में होने वाले पूजा-पाठ से, मन्दिरों में जाने से, साधु-सन्तों की बातों से और धर्म-ग्रन्थों से जिस भगवान का बोध हुआ था, मुझसे परमात्मा उससे अलग मिला। मैं इस पचड़े में नहीं पड़ता कि क्या सही है और क्या गलत।हाँ, एक दिन में कुछ भी नहीं होता। अब तो मैं कह सकता हूँ कि एक जन्म में भी नहीं होता। अनेक जन्मों की भावना, लगन और सतत प्रयास से हो पाता है। मुझे तो ऐसा लगता है कि केवल मेरे चाहने से भी नहीं होता। होता तभी है जब उसकी कृपा होती है। इतना ज़रूर था कि जब कभी थोड़ी असुविधा होती, विरोध होता, अपेक्षित सफलता नहीं मिलती या सुख-स्वच्छन्दता में कमी लगती तो प्रायः उन्हीं मन्दिरों में जाता, उन्हीं ग्रन्थों को हाथ में लेता या उन्हीं साधु-सन्तों से मिलता और कुछ पाने की उम्मीद करता। यह भी सही है या मेरा अनुभव यही है कि इसी तरह मेरी यात्रा चलती रही। शायद उसने मुझे इसी तरह अपनी तरफ आने दिया और मैंने भी ऐसे ही उसे पहचाना। उसके प्रति अविश्वास और अपरिचय से परिचय और विश्वास की यात्रा सीधी और सरल नहीं रही। अब लगता है कि सारी समस्याएँ मेरी थी। मैंने ही देर की, मैंने ही उससे दूरी बनाये रखा, मैं ही सुख-शान्ति की खोज में अन्यत्र उलझा रहा, मैंने ही नाना तर्को में अपने को बाँधे रखा और मैं ही उससे अलग अपने अस्तित्व में खोया रहा। अब तो अपने पर रोना आता है, पछतावा और दुख होता है कि उसके साथ होने के सुख से वंचित रहा। आश्चर्य है, फिर भी उसने मुझे नहीं छोड़ा, उसने मेरे लौट आने की प्रतीक्षा की और सारे लोगों को मेरे पास भेजता रहा जो मुझे उसका पता बता रहे थे, उसकी पहचान दे रहे थे और उसकी अनुभूति करवा रहे थे।
अब लगता है कि अपने पिछले जन्मों में भी मैंने उसकी ओर की कुछ यात्रायें की हैं या कम से कम इतना अवश्य हुआ है कि उसका अहसास बना रहा। खूब प्रेम नहीं, तो उससे बैर भी नहीं था। उससे मेरा खूब परिचय नहीं हुआ, तो उसकी उपस्थिति से अनजान भी नहीं था। जब से थोड़ी चेतना जागी है उससे दुराव नहीं हुआ बल्कि उसकी ओर मेरा झुकाव और लगाव बना रहा। सच तो यह है कि उसने अपने दरवाज़े मेरे लिए खोल दिये और मेरी प्रतीक्षा करता रहा।
यह रहस्य है जिसे समझने की जरुरत है। एक तरफ संसार है और दूसरी तरफ हमारा ईश्वर। हम बीच में हैं। यह संसार माया का माना जाता है। संसार ईश्वर का है और माया भी उसी की है। हम भी उसी के हैं और वह हमारा है। परमात्मा को अपने हृदय में रखो और संसार का सारा व्यवहार करो। हम ऐसा नहीं करते। इसका उल्टा करते हैं। संसार में रहते हैं और संसार को ही अपने दिल में रखते हैं। परमात्मा को दूर की चीज समझते हैं और भूले रहते हैं। जब तक संसार में सुखानुभूति होती रहती है हमें परमात्मा की स्मृति नहीं होती।
लगभग शाम के ६ बजे हम अगली यात्रा की सुरक्षा-जाँच के लिए निर्धारित स्थल की ओर बढ़े। चारों ओर भीड़ थी। लोगों में आपधापी का आलम दिखा।कोई घोषणा हुई थी जिसे मैं सुन नहीं पाया था। लोगों की भाग-दौड़ से ज़रुर लगा कि कुछ गड़बड़ है। किसी ने बताया कि "बुलबुल" तूफान जो बंगलादेश की ओर बढ़ रहा था, वह बंगाल की खाड़ी में उड़ीसा से लेकर कोलकाता तक और उधर बंगलादेश तक बहुत तेज गति से टकराने वाला है। कोलकाता एयरपोर्ट पर जाने और आने वाली सारी उड़ाने अगले १२ घंटे तक के लिए रद्द कर दी गयी हैं।
अब हम कहाँ जाएं, क्या करें-समझ में नहीं आ रहा था। तबियत ठीक नहीं है और कमज़ोरी भी है।
