रश्मि संजय (रश्मि लहर) श्रीवास्तव

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रश्मि संजय (रश्मि लहर) श्रीवास्तव

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गुलगुले

गुलगुले

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अभी परसों ही माता जी से बात हुई थी पर बहुत कम देर, मन बेचैन था । सोचा लाओ फोन करते हैं। स्वयमेव फोन मिला दिया जैसे !

"अम्मा चरण-स्पर्श "

"खुश रहो दुलहिन "

"और अम्मा आप सब कैसे हैं.."

"बिटिया ........10 दिन से घर में सब्जी नहीं बनी, तुम्हारे पापा नाराज होते हैं । चाय में दूध नहीं पड़ा। चल-फिर तो पाते नहीं हम लोग, ये तो सुन भी नहीं पाते, मैं सुना करती हूँ । घर में तुम्हारा कमरा कबाड़ घर बन गया है । सुवास ने पूरा कमरा अपना कर लिया है दुलहिन" (सुवास, मेरे देवर का नाम है)

"अम्मा ! मैंने बीच में उन्हें रोकना चाहा, 

कुछ खाया है अम्मा ?"

"बिटिया लाई खाई थी थोड़ी सी...सुवास की बीवी हमसे तो कहती नहीं, पर सुनाई पड़ जाता है, घर में घी, चीनी सब कम है। बुढ़ापे ने जाने कौन सा..फालतू में खर्च बढ़ा दिया है बिटिया..."

अम्मा बोले जा रही हैं ...... मेरी आँखें द्रवित हैं ...

अम्मा अपने मन में कितना गुबार भरे हैं...कभी तो इतना नहीं बोलतीं ....आज क्या हो गया है ? मैं मन में सोचने लगी।

"हैलो बिटिया ....सुन रही हो ना"

मेरी सोचने की प्रक्रिया भंग हो गयी..

"हाँ अम्मा ! बताओ सब ठीक है ?"

"हाँ बेटा सब ठीक है ; पर मेरा मन नहीं लगता है यहाँ, दम घुटता है ...

मेरे आगे तुम लोग भी तो चले गए! इधर मैंने तुम्हें फोन नहीं किया, तो किसी ने कराया भी नहीं..

झगड़े फिर भी होते रहे कि तुम अचानक कभी हमेशा के लिए आ जाओगी तो घर में हिस्सा ...बिटिया तुम्हारे जाने के बाद पता चला .....

वो , तुम्हारी देवरानी ..मेरे तेल तुम्हारे दिखावे में लगाती थी, दो बार कह चुकी हूॅं बिस्तर के नीचे से बदबू आती है, एक बार तुमने सफाई करते-करते मरी हुई चुहिया निकाली थी ... तुमको तो सब मना करते थे कि झाड़ू काम वाली लगा जाती है ... हम सब सुनते थे । तुम फिर भी आकर ..सब करती थीं। दुलहिन.. तुम कब से नहीं आई हो ...बिस्तर के नीचे गंदगी में इन सबकी असलियत छुपी है" कहते-कहते अम्मा हाॅंफने सी लगीं।

मेरा मन भर आया, मैंने बीच में अम्मा को टोकते हुए कहा, "अम्मा दवा खा लो तो बात करो" 

" दवा ! वो तो कब से नहीं आयी"                        

"कोई बीमारी फैल रही है .... सुवास बाजार तो जाता है, चाकलेट, लेज़ वगैरह घर लाता है पर दवा की दुकान में वाइरस है कोई" अम्मा की बोली में वितृष्णा का भाव लगा..


"अम्मा ..कोई आया है लगता है .... फोन रखना पड़ेगा!" मैंने थोड़ा सकुचाते हुए कहा।

"अच्छा दुलहिन चिंता न करना ... हमने अपना बिस्तर तुम्हारे कमरे में लगवा लिया है ; तुम आना तो मेरे पास सोना, थोड़ा पैर भी दबा देना, वाइरस न हो तो मेरी दवा भी ला देना और हाॅं, थोड़ा गुलगुला बना लाना दुलहिन ...हमें कुछ मना नहीं किया डाक्टर ने पर...वाइरस...

और हाँ बेटा ... तुम्हारे कमरे की बिजली कट गयी है ... पड़ोसन आज पकौड़ी दे गयी थीं ...तुमको याद कर रहीं थी.... बेटा तुम ये सब किसी से ना कहना ..... मुझे तुम्हारे साथ रहना अच्छा लगता है, जब तुम आना मुझे चिपका के सुला लेना .... ये लोग कह रहे थे मुझे वाइरस पकड़ न ले इसलिए खाना कम देते हैं..

और हाँ बिटिया ... मुझे माफ कर देना .... मैंने तुमपर कभी अपना प्रेम नहीं जताया ... क्योंकि मुझे पता है तुम हमें अपना समझती हो ....तो तुम गुस्सा नहीं होगी कभी ।

अच्छा बेटा अब रखो... सब ठीक है" कहते हुए अम्मा चुप हो गईं

"चरण स्पर्श" कह कर मैंने भारी मन से फोन काट दिया ।

मन उथल-पुथल के मध्य फँस गया। संयुक्त परिवार में बिताए पूरे बीस वर्ष जैसे सामने आकर खड़े हो गए। पैतृक ससुराल का मकान..लखनऊ की गलियाॅं ..मेरे हर त्यौहार पर अम्मा का खुश होना, "बड़ी बहूरिया तो चाॅंद जैसी है" कहकर मेरी नज़र उतारते समय वो माॅं से भी ज्यादा प्रेम अभिव्यक्त कर देती थीं। सच कहूॅं तो उनकी ममता के सामने सबका प्यार बौना हो जाता था। और फिर देवरानी का आना! सामान्य बातों पर मतभेद ऐसा बढ़ना कि मुझे विषम परिस्थितियों में ससुराल से निकलना पड़ा। तभी सहसा मैंने अपने भीगे गालों को पोंछा और पुरानी स्मृतियों से बाहर आकर गुलगुले ( उत्तर प्रदेश में बच्चों के जन्मदिन पर बनाए जाते हैं) बनाने का विचार बनाया और किचन की तरफ चल दी। माँग भरी ...पैर में आलता लगाया ... सीधे पल्ले की साड़ी पहन कर मैं... एक पोटली में ढेरों गुलगुले रखकर चल पड़ी अम्मा के पास। अम्मा को मैं सजी-धजी ही पसंद आती हूॅं, सोचते हुए मैं मन ही मन मुस्कुरा पड़ी। चूॅंकि ससुराल पास ही था, तो अक्सर ही हम दोनों अम्मा से मिल आते थे। इधर एक महीने से मैं वाइरल के चलते घर नहीं जा पाई थी। घर पहुॅंचते ही

 घर के बाहर भीड़ देख मेरा माथा ठनका ।

"क्या हुआ ?" मैंने एक पड़ोसिन से पूछा

"अम्मा चली गईं.." बिटिया कह कर वो पड़ोसिन रो पड़ीं।

"हाय !" मैं स्तब्ध रह गई!

तभी एक पड़ोसन आयीं ..."अरे दुलहिन ..आज ही तो पकौड़ी बना के दे गई थी मैं, पूरा समय कहती रहीं कि तुम आई हो.......असल में 5 दिन हो गये…. थोड़ा सनक गयी थीं अम्मा। सुवास ने तुम्हें नहीं बताया?" सुन्न-गुन्न सी 

मैं अचानक अम्मा के पैरो से लिपट के रो पड़ी...

"नहीं! अम्मा ऐसे नहीं जा सकती है....नहीं.. ऐसा नहीं हो सकता ..."

कह कर मैं फूट-फूट कर रो पड़ी। मेरे कानों में अम्मा के शब्द गूॅंजते जा रहे थे। और तभी सहसा मेरे हाथों से सारे गुलगुले छूटकर उनके पैरों पर फूल की तरह बिखर गए...


                    समाप्त



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