घरौंदा, आंसुओं का !
घरौंदा, आंसुओं का !
पंडित जी ने शुभ मुहूर्त आठ दिसंबर निकाली थी ।दिन में बारह से दो बजे का मुहूर्त सर्वोत्तम था इसलिए पाण्डेय दम्पति ने तैय्यारियां युद्ध स्तर पर शुरू कर दी थीं ।विजय बाबू ने पंडित जी की थमाई लिस्ट हाथ में ली और यह कहते बाज़ार चल दिए कि बाकी काम के लिए बेटे को पड़ाइन लगा दें ।पूजन सामग्री की शहर में चौक वाली पुरानी दुकान पर जाकर उन्होंने एक- एक सामान बोलना शुरु कर दिया । कलश तांबा ,हरा नारियल जूट वाला ,नाग -नागिन- कछुआ तांबे या चांदी का ,रोली,चन्दन,जनेऊ,मीठा,दोना,मिटटी का दीपक,आम्रपल्लव दूब,हवन सामग्री,घी,
सुपारी,एक गरी का गोला,गेहूँ,आटा ,धूप बत्ती,तिल,सरसों,चावल,पंचरत्न,सर्व औषधि और जाने क्या क्या । सामन लेते लेते तिजहरिया हो गया । किसी तरह लद फद कर घर पहुंचे तो पड़ाईन का गुस्सा सातवें
आसमान पर चढ़ चुका था ।
"जहां जाइत हौ वहिंये रही जात हौ । या नाहीं सोचत हौ कि घर पर ढेर सारा काम पडौ है "
"अरे मालकिन ,चुप्पे रहौऊ ।इहाँ कमर टूटी जात है और तम्हार बक बक चालू ह्वै गया !"विजय बोल उठे ।
ओसारे के एक किनारे सामान पटके और हाथ मुंह धोने चल दिए । उनके पेट में चूहे उत्पात मचाये हुए थे ।
खाना लग चुका था और विजय बाबू भूखे भेड़िये की तरह उस पर टूट पड़े थे ।थाली के साथ दही का कटोरा नहीं पाकर फिर चिलाये उठे ;
"अरे आज दही नहीं मिलेगी क्या ?"
पड़ाईन दौड़ कर उनको दही परोसीं।
गाँव से सासू मां के साथ उनकी एक ननद भी आ गई थी इसलिए नये मकान के गृह प्रवेश की पूजा पाठ की तैय्यारी में उनको काफी मदद मिल रही थी । आखि़र अब समय कहाँ बचा है ..कल ही तो है।
कुल मिलाकर लगभग एक सौ लोगों के आने की उम्मीद थी । हलवाई ने नये मकान के अहाते में अपना चौका चूल्हा लगाया और वातावरण में देखते ही देखते सुस्वाद तैरने लगा । पंडित जी आ चुके थे और पड़ाईन विजय बाबू के साथ गाँठ जोड़ कर झकझक पियरी में पूजा पाठ के लिए आ गई थीं ।लाडला इकलौता बेटा अंतर्मुख को इसी साल नौकरी मिली थी और वह बहुत खुश था कि अब बर देखुआ लोग जब आया करेंगे तो कम से कम उसके नरिया - खपड़ा वाले पुराने मकान को देख कर मुंह तो नहीं बिचकाया करेगे ।उसको अपने टुटहे मकान का काम्प्लेक्स बहुत हुआ करता था क्योंकि उसके सारे संगी साथियों के पक्के दो दो मंजिला मकान थे ।उधर विजय बाबू को अब पुराना मकान छूटने का गम सता रहा था ।इलाहाबादी खपड़े वाला उनका वह मकान उनके लिए तो बहुत ही शुभ था ।
भीड़ बढ़ रही थी क्योंकि लंच का भी टाइम हो रहा था ।इस कालोनी में विजय बाबू द्वारा प्रायोजित यह दूसरा अवसर था जब नव निर्मित इस मकान के अगल- बगल के लोग भी बुलाये गए थे । पिछली ही बार भूमि पूजन का अनुभव यह था कि उस कालोनी के इतने सधे हुए लोग थे कि मानो दूरबीन से वे देख रहे हों कि कब पलटन खाने को उठे और कब वे भी खडभोज में शामिल हो जाएँ ।इस बार भी वही हुआ ।डेढ़ बजते बजते पंडित जी ने लाइन क्लीयर दे दिया और प्रसाद के रूप में लोगों ने भोजन करना शुरू कर दिया ।खाना खाते हुए सभी मकान की तारीफ़ कर रहे थे ।ज्यादातर लोगो ने लिफ़ाफ़े में एक सौ एक की रस्मी नेवता हंकारी भी पूरी कर दी ।
नये मकान में पहली रात । पंडित जी बार बार ताकीद कर गए थे कि गृह स्वामी और गृह स्वामिनी को उस रात में उस घर में रुकना ही है ।उधर नया बना घर अभी पूरी तरह तैयार नहीं था इस भवन स्वामी की खिदमत करने के लिए । रात में बडबडाते हुए अंततः विजय बाबू अपने मालकिन को लेकर सोने के लिए आ ही गए ।जाड़े का दिन था और तेज़ हवाओं ने नाक में दम कर रखा था ।न कायदे की खटिया और ना ही पर्याप्त ओढ़ना बिछौना !हाँ एक चीज़ अलबता विजय बाबू को अच्छा लगा कि कम से कम पंडिताइन के शरीर का एकान्तिक स्पर्श पाते हुए उन्होंने महीनों बाद साहचर्य सुख उठा लिया । उन्हें अपना हनीमून याद आ गया ।
अब अगले दिन से पुराने घर से नए घर में सामान शिफ्टिंग का कठिन काम भी शुरू हो गया ।आपस में तय यह हुआ कि नए घर में रहकर ही अंदरूनी साज सज्जा का काम चलता रहेगा ।
अभी उस घर में आये एक महीने ही हुए थे कि बड़े लड़के अंतर्मुख की शादी का एक अच्छा प्रस्ताव आ गया । लड़की वाले पटना के लोग थे ।आपस में कुण्डली का आदान प्रदान हुआ और चट मंगनी पट विवाह के इस्टाइल में फरवरी की पंद्रहवीं तारीख को शादी की तारीख तय हो गई ।अंतर्मुख ने परिवार की परम्परा गत व्यवस्था के अलावे धूम धाम से इसे सेलिबिरेट करने का प्रोग्राम बना लिया था ।वही हुआ ।भरपूर दहेज़ मिल जाने से विजय बाबू ने भी आगतों के लिए कोई कोर कसर नहीं छोडी थी ।रिश्तेदार लड़की वालों से बहुत ही खुश थे ।लड़की वालों ने एक के बदले चार की मात्रा में भेंट आदि देकर वर और बारातियों को उपहारों से लाद दिया ।दुलहन भी विदा होकर उसी नए घर की शोभा बनीं ।
कुछ महीने तो सब ठीक - ठाक चलता रहा ।ससुराल वाले आते - जाते रहे लेकिन उसके बाद जैसा कि अक्सर होता भी है पाण्डेय दम्पति भी ससुराल वालों की उपेक्षा का शिकार होने लगे ।यह तो कोई ख़ास मसला नहीं था । असल मसला यह हुआ कि लड़की बहुत सिर चढी निकली ।बात- बात पर वह पड़ाइन से तू तू मैं मैं पर उतर आया करती थी ।अनाप - शनाप कपडे पहन कर हर शाम अंतर्मुख को लेकर घूमने निकल जाया करती ।घर का बना बनाया खाना डाइनिंग टेबुल पर रखा रह जाता और दूसरी सुबह या तो दाई ले जाया करती थी या फेंका जाता था ।एक दिन, दो दिन तो पड़ाईन ने बहू के इस व्यवहार को बचकाना हरकत जान कर किसी तरह सहा ।लेकिन जब बात रोज़ रोज़ की होने लगी तो एक दिन उन्होंने कठोरता से कहा-
"बहू !भला ऐसे कब तक काम चलेगा ?तुम रोज़ रोज़ खाना बाहर ही खाकर आ जाया करती हो ।बताती तक नहीं कि खाना ना बने ।अन्नपूर्णा का अनादर ठीक नहीं है बेटा ।"
बहू ने शील संकोच छोड़ कर उत्तर दिया - "मम्मी जी , मेरी कोई गलती नहीं है ।अब ये ही प्रेस करते हैं कि तुम बाहर खा लो तो मैं क्या करूँ ! "
" बेटा ...अंतर्मुख बेटा ।"पड़ाइन पुकारने लगीं ।
बाथरूम से उसने आवाज़ दी - " अभी आया । ''
बेटे ने अपनी बीबी की बात से अलग अपनी बात रख दी और कहा -" असल में उसके पापा- मम्मी अक्सर बाहर का ही खाना उसको बचपन से खिलाते आये हैं इसलिए उसे अब ना तो किचेन में खाना बनाना पसंद है और ना ही घर का खाना ।"
अपने माथे पर हाथ रखते हुए पड़ाईन बैठ गईं ।उन्हें तो सेर पर सवा सेर का उत्तर मिल चुका था ।कितने अरमान पाल रखे थे उन्होंने अपने मन में ।अब घर की बहू ही जब दिन रात होटल बाजी करेगी तो बुढापे में दो जून की रोटी का क्या होगा ? पाण्डेय परिवार के अगली पीढी के भविष्य का सिगनल मिल चुका था ।इकलौते बेटे के माडर्न दाम्पत्य जीवन की झलक भी मिल चुकी थी । " ईट, ड्रिंक एंड बी मैरी " की जीवन शैली के शंखनाद को पाण्डेय जी ने किताबों में पढ़ा सुना था अब उनके पूत उसको सामने दिखाने को तैयार थे ।
इधर जितना बेचैन , किन्तु दिखने में शांत , पाण्डेय दम्पति थे उधर उतना ही सक्रिय उनके बेटे बहू हो गए थे ।बहू ने बेटे को मानो वशीकरण मन्त्र चला दिया हो ।शादी के छह महीने में अंतर्मुख ने दूसरे शहर में ट्रांसफर ले लिया ।अब वे स्वतंत्र थे अपनी अपनी इस्टाइल में जीवन बिताने को ।लेकिन अकेला बेटा होने के नाते पड़ाईन को यह बात ह्रदय में नश्तर की तरह चुभती रही कि बहू ने आते ही बेटे को पाठ पढ़ा दिया ।बेटा अब उनकी नज़रों से ही नहीं मन और ह्रदय से भी दूर हो चला था । रोज की दिनचर्या के दौरान विजय इस बात को समझ कर भी ध्यान नहीं देते थे ।ध्यान देकर भी वह क्या कुछ कर सकते थे ?घर- घर की तो यही कहानी वह सुनते आ रहे हैं ।
पंडा़इन सदमें से उबर नहीं पा रही हैं।उन्हें पुराने खपरैल वाले घर की याद आने लगी है।उनकी आंख से आंसुओं की धार बहती जा रही है।इस आंसुओं वाले घरौंदे से उनका मन उचट गया है।
