छेद।

छेद।

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 “अजी सुनती हो,गजेंद्र की अम्मा। शहर से तुम्हारे लाडले की चिट्ठी आई है। लिख कर भेजा है कि अगले महीने की दस तारीख तक यहाँ पर पहुंच जायेगा।“ गजेंद्र के पिता भोलेनाथ घर के अंदर आते हुए खुशी से चिल्लाते हुए बोले।

“सच्ची कह रहे हो। गज्जू दस तारीख तक आ जायेगा? जरा पत्री तो दिखाना। मैं भी तो पढ़ लू क्या लिखा है मेरे बच्चे ने? बहु और बच्चे भी साथ में आयेंगे या इस बार भी अकेले ही आ रहा है? कितने दिनों के लिए आ रहा है? कुछ भी नहीं बताया आपने अभी तक। उसने भी कितने सालों बाद अपनी खोज खबर दी है।“ गजेंद्र की माँ उमा एक साँस में बोल गई।

“अरे ओ भाग्यवती। अगर तुम्हारे सवाल खत्म हो गए हो तो हम कुछ बोले। गज्जू ने पड़ोस वाले मिश्रा जी के फोन पर चिट्ठी भेजी थी जिसमें उसने बस अपने आने के बारे में ही लिखा था। बाकी तो उसके आने पर ही पता चलेगा।“ भोलेनाथ ने कुर्सी पर टिकते हुए कहा।


“बाबा उसे चिट्ठी नहीं मैसेज बोलते है। कितनी बार कहा है कि आप भी एक टचस्क्रीन फोन ख़रीद लो लेकिन आप तो बस इस डिब्बे के साथ ही खुश हो।“ गजेंद्र की छोटी बहन कंचन ने अंदर आते हुए कहा।

“यह सब फालतू के चोचले बाजी मुझसे तो होती नहीं। एक बात करने के लिए इतना खर्चा। यह सब तुम्ही सब को मुबारक हो।“ भोलेनाथ वहाँ से उठकर चलते हुए बोले।

गजेंद्र की माँ उसके आने की खबर से बहुत खुश थी। शहर जाने के बाद आज पहली बार गजेंद्र की ओर से कोई खबर आई थी। घर मे तरह तरह की तैयारी की गई। खान पकवान बनाये जा रहे थे लेकिन दस तारीख से पहले ही सब खत्म हो गया।

उस दिन भोलेनाथ जब घर आये तो उनका चेहरा उतरा हुआ था।

क्या हुआ? आप परेशान लग रहे हो

कुछ नहीं। गजेंद्र का फोन आया था। वह नहीं आ रहा।

क्यो? क्या हो गया?

कुछ नहीं। उसे हमारी नहीं पैसे के लिए इस मकान की जरूरत थी। वह पूरी नहीं हो रही तो उसे आने की क्या जरूरत थी।

 आज उन्हें एहसास हो रहा था कि उनकी रिश्तों की पोटली में छेद हो चुका था।



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