भैंस : एक दार्शनिक पशु
भैंस : एक दार्शनिक पशु
पशु समाजिक हो सकता है जैसे मनुष्य या धार्मिक जैसे गाय-बकरा आदि। पर दार्शनिक पशु बस भैंस है। शायद ही किसी ने किसी भैंस को उपद्रव मचाते देखा हो। इसे देख कर किसी पीर-सन्यासी की याद आती है, जो जीवन के सुख और दुख से ऊपर उठ चुका है। तमाम दार्शनिक किताबें भैंस के अनमनी दार्शनिकता के आगे फिके पड़ जाती हैं।
भैंस से मेरी पहली मुलाकात बचपन में हुई। राजस्थान में एक छोटा सा गाँव है, बाँसवाड़ा से 30 किलोमीटर दूर है 'बाँसला'। यही है मेरा गाँव। मेरे पापा ने अपना बचपन यहीं काटा था और नौकरी लगने के बाद भी वो चाहते थे कि बच्चे गाँव से मानसिक रूप से ज्यादा दूर न चले जाएं।
इसलिए हर छुट्टी में वहाँ जाते ही हमें गाँव के काम पकड़ा दिए जाते थे, जैसे घास काट के लाना, खेत में बाकी काम, भैंस को चराने ले जाना आदि। इसमें मेरा सबसे प्रिय काम रहा है भैंस चराना।
गाँव में भैंसों और गायों को दोपहर में नदी के तरफ घास खिलाने ले जाया जाता है। इसे ही भैंस चराने ले जाना कहते हैं। उनके घास खाते वक़्त वहाँ एक व्यक्ति को खड़ा रहना पड़ता है कि जानवर किसी और के खेत में न घुस जाये। और अगर ऐसा हुआ तो उस रोज गांव में लड़ाई पक्की।
हाँ ! तो ये मेरा प्रिय काम इसलिए रहा है क्योंकि आप अकेले भैंस चराने नहीं जाते-गाँव के लगभग सारे बच्चे जाते हैं और कुछ बूढ़े भी। तो भैंस चराते वक़्त आपको मस्ती करने का पूरा मौका मिलता है। जानवर को खुला छोड़ बच्चों का खेल चलता रहता है।
पर ये तो हुई खेल की बात। दूसरी जरूरी बात ये की अगर आप भैंस चराने जा रहे हैं तो आपको पैदल नहीं चलना होता था। भैंस बड़ा ही प्यारा जानवर है। बच्चों को तुरंत पीठ पर बैठा लेता है। ऐसी सहजता कभी दूसरे जानवर में नहीं दिखी।
बच्चा अगर काफ़ी छोटा होता तो वो घास चरती भैंस के सर पर पाँव रख आराम से उसके पीठ तक चलता हुआ जा बैठता। कुछ बच्चे उसकी पीठ पर कलाबाजी करते और भैंस किसी बूढ़े दादाजी की तरह बच्चों को ये हरकतें करने देती।
और फिर गाँव के लगभग सभी लोगों को तैरना भैंस ने ही सिखाया था। सब बच्चे अपनी अपनी भैंसों को नदी में नहलाते वक़्त उनकी दुम पकड़ तैरने की कोशिश करते। भैंस कभी भी धोखा नहीं देती। आप आराम से दुम पकड़ नदी के इस पार से उस पार हो सकते हैं।
भैंस जितना सहनशील होना काफ़ी मुश्किल है। इतनी सहनशीलता के बाद भी, इसे कभी बड़े तौर पे धार्मिक पशु की उपाधि नहीं मिली। ये अपने सहजीवी गाय-बकरा-सुअर आदि की तरह न किसी धर्म में पूजा योग्य बना न किसी मज़हब में कुर्बानी या हिकारत का विषय। कोई 1857 की क्रांति नहीं हुई इसके लिए।
पर इसमें भी शायद भैंस दार्शनिकता ही है। वो शायद धर्म-मज़हब की खामियों को बाकी पशुओं से ज्यादा अच्छे तरीके से समझता है।
और भैया भैंस जीवन को इतने अच्छे तरीके से जान चुकी है कि वो मृत्यु के देवता का वाहन है। मृत्यु जैसे जीवन को पूर्ण रूप से समझती है और जैसे वो जीवन के सुख दुख के हिसाब से ऊपर उठी होती है, वैसे ही मृत्यु के देव का बोझ उठाने वाला हमारा ये दार्शनिक पशु सांसारिक मोह से ऊपर उठा रहता है।
भैंस धर्म के लिए जरूरी हो न हो। पर गाँव के लिए काफ़ी जरूरी है। गाय की तरह ही उसका दूध और गोबर दोनों गाँव वालों के काम आ जाता है। गांव की औरतें जानती हैं कि शाम के चूल्हे का ईंधन भी भैंस ही देती है।
चुपचाप एक कोने में अपनी घास चबाते हुए भैंस को पता है दुनिया कितनी नीरस है, तो इस नीरसता को अपनी सहजता से बौना कर देता है। बुद्ध ने शायद जब ये जानवर देखा हो तो गर्व महसूस किया हो। क्या पता कितने फकीरों को फ़कीरी का पाठ पढ़ा चुका हो हमारा ये दार्शनिक दोस्त।
बहरहाल भारत के ही दक्षिण में नीलगिरी पर्वत पे रहने वाली टोडा जनजाति, भैंस की इस दार्शनिकता को शायद समझते हुए उसे अपना पवित्र पशु मानती है।
बाकी इस संसार को भैंस से सीखने को बहुत कुछ बचा है।।
