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Arjun Bisht

Others

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Arjun Bisht

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बच्च दा

बच्च दा

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ओ बच्च दा कहाँ को भाग दौड़ हो रही है सुबह सुबह रत्ती, बच्च दा को टोकते हुये गोपाल दा बोले, सुनते ही बच्च दा पलटे और कहा मरने जा रहा हूँ, चलेगा क्या।

गोपाल दा खितखित हँसते हुये बोले, वहाँ तुम ही जाओ, पर चाय पीकर जाना आ जाओ। 


फटा जूता, सिर पर टोपी, ढीली सी पतलून और ऊपर फटी सी स्वेटर पहने बच्च दा, चाय का नाम सुनते ही बड़ी ठसक से पाँव में पाँव रखकर आँगन में आकर बैठ गये, और जोर की आवाज लगा कर बोले, ओ ताई गुड जरा बड़ा बड़ा लेकर आना, कम मीठे में चाय पी जैसी नहीं लगती, अजीब स्वाद हो जाता है चाय का।


बच्च दा गाँव के हर घर को अपना घर सा ही मानते थे, इसके चलते ही वो इस तरह की बात अधिकारपूर्ण बोल जाते थे।

बच्च दा जवाब देने में बड़े हाजिर थे, लोग मजाक करते तो बच्च दा ऐसा जवाब देते की सामने वाला खिसिया कर रह जाता, वैसे बच्च दा थे सीधे व सरल इंसान ।


गाँव में बस उनकी टूटा फूटा मकान था, बाकी जमीन जायदाद तो उनके रिश्तेदार खा गये थे ,जब वो बहुत छोटे थे, उनके पिता का देहांत हो गया था और 13 - 14 साल के होंगें तो माँ भी चल बसी, जब सम्भालने वाला कोई नहीं बचा, तो रिश्तेदार ने उनकी देखभाल के नाम पर सारी संपत्ति हथिया ली थी, दोनों वक़्त खाना भी इसलिए मिल जाता था, ताकि बच्च दा को ग्वाले भेजा जा सके, स्कूल का तो मुँह ही नहीं देखा था की, कैसा होता है, इतना सब कुछ होते हुये भी बच्च दा ने कभी किसी से शिकायत नहीं की, बहुत ही संतोषी इंसान थे बच्च दा।

 

बचपन से ही बच्च दा गाय बकरियों के ग्वाले जाते, और जंगल में बैठ कर पहाड़ी गीत गाते, कैलि बजा मुरुली तो उनका प्रिय गीत था, अक्सर उन्हें ये गीत गाते और गुनगुनाते हुये देखा जा सकता था, बांसुरी भी अच्छी बजा लेते थे, एक और चीज बजाते थे, जिसका नाम बच्च दा वीणा या बीणा कहते थे, वो तार का बना था, बच्च दा उसे दाँतों के बीच फँसा कर बजाया करते थे।


बच्च दा को कोई गलत शौक भी नहीं था, ना ही वो बीड़ी पीते थे ना ही शराब, जबकि उनकी उम्र के अधिकांश लोग बीड़ी तो फूँक ही लेते थे, बच्च दा बीड़ी फूँकने वाले साथियों को कहते भी थे, कम कम फूंका कर रे बीड़ी, नही तो तू जल्दी फूंक जायेगा जल्दी।


बच्च दा इतने साफ दिल के इंसान थे की, किसी को कुछ कहना होता तो, उसके मुँह पर ही बोल देते, पीठ पीछे बोलना उन्होंने जैसे सीखा ही नहीं था, पर बोलने से पहले वो ये डायलॉग जरूर बोला करते की, तुझे बुरा तो लगेगा पर पीठ पीछे बात करना मुझे नहीं आता।


बच्च दा का अपना कहने को कोई नहीं था, इसके चलते उनका विवाह नहीं हो पाया, करता भी कौन उनके रिश्ते की बात, जमीन के नाम पर ना ही, कोई खेत था ना ही कुछ ओर, टूटा मकान था और उसमें खाना पकाने के लिये एक आद बर्तन थे, उसमें भी बच्च दा कभी कभार ही खाना बनाते थे, क्योकिं कोई ना कोई उनको अकेला जान कर खाना खिला ही देता था, चाय तो करीब करीब सब पिला ही देते थे, इसके चलते बच्च दा रोजाना 5 - 7 गिलास चाय तो पी ही लेते थे, बस चाय के साथ उनको गुड की बड़ी डली चाहिये होती थी, कोई छोटी डली पकड़ा दे तो बच्च दा तुरंत डायलॉग ये मार देते थे की, इतना सा गुड क्या लाया है, छाती में धर के ले जायेगा, इस डायलॉग के चलते हर कोई उन्हें बड़ा गुड ही लाकर देता था।

 

बच्च दा की कमाई का जरिया या तो लोगों के गाय बकरियों के ग्वाला ले जाना से होती थी, या लोगों के लिये लकड़ी या घास लाने से होती थी, अकेले थे खर्चे के नाम पर कुछ नही होता था तो साथी लोग मजाक में जब बच्च दा से ये पूछते की कितने पैसे छिपा रखे हैं बच्च दा मकान के अंदर, तो वो तपाक से बोल उठते जा भीतर और देख आ, मिल जाये तो अपनी एक शादी और कर लाना।


एक बार का किस्सा है, बच्च दा कोयले के चूरे से मँजन कर रहे थे, उनके में मुँह काला लगा था, किसी ने मजाक करते हुये ये कहाँ बच्च दा आज तो पक्का काले मुँह का बंदर लग रहे हो, बच्च दा ने तुरंत जवाब दिया, फिर तो तेरे पिता भी काले मुँह के बंदर हुवे, उन्होने ही तो मुझे ये दिया है।


बच्च दा अपनी नाक पर सवालों मक्खी भी नहीं बैठने देते थे, गजब की हाजिर जवाबी थी उनमें।


गाँव में किसी के भी काम हो, या कोई सामूहिक काम हो,तो सबसे पहले और सबसे ज्यादा काम करने वाले इँसान बच्च दा ही होते, लकड़ी लाना हो या कोई और काम बच्च दा सबसे आगे रहते, चाय बनाने की जिम्मेदारी तो उन्हें ही दी जाती थी, किसने पी किसने नहीं पी, बच्च दा को सबका ध्यान रहता, ऐसी बढ़िया और चाय बनाते की, पीने वालों को भी आनंद आ जाता, चीनी, चायपत्ती और दूध का संतुलित उपयोग करना तो कोई बच्च दा से सीखता, लेकिन बच्च दा खुद की बनाई चीनी वाली चाय नहीं पीते थे, वहाँ भी उन्हें गुड वाली चाय चाहिये होती थी, इसके चलते वो जिसका काम हो रहा होता था, उसे बोल देते थे - देख रे मेरे लिये थोड़ा गुड ला देना, तब तेरी ये चाय अच्छी बनेगी, फिर मत कहना की, बच्च दा कैसी चाय बना दी, यहाँ भी वो अधिकारपूर्वक अपनी बात मनवा लेते थे।


उनके जिंदगी जीने के अंदाज से कोई नहीं कह सकता था की बच्च दा का कोई नहीं था, क्योंकि उनके लिये तो सारा गाँव ही अपना था।


स्वरचित लघु कथा 



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