अवैध मानसिकता
अवैध मानसिकता


आज़ रविवार यानी छुट्टी का दिन था। इसलिये आज़ मोहल्ले में चहल-पहल रोज़ की तुलना में ज़्यादा थी। वही धूप सेंकते हुए पार्लियामेंट्री सभा करती औरतें, ताश के पत्तों से चाल चलते पुरुष, खेल के मैदान से लौटते हुए एक टीम के चेहरे पर पर दिन दूसरी टीम के चेहरे पर रात। हमेशा कि तरह उस सामान्य जीवनशैली कि चौखट पर पर एक बड़ी असामान्य घटना ने दस्तक दी। एक सरकारी कार और उसके पीछे एक सरकारी जिप्सी आकर मोहल्ले के बीचों-बीच रुकी। उस मोहल्ले से होकर आज़ तक कोई इतने बड़े सरकारी अफ़सर की गाड़ी कभी गुजरी भी नही थी और आज़ आकर रुकी। 'जरूर कोई बड़ी बात है' लगभग सभी मोहल्ले वालों के मन में ये सवाल उफ़ान मार रहा था। यहाँ तक तो फ़िर भी था पर उसके बाद जो उन्होंने देखा उसके बाद सबको खुद के होश में होने पर शक होने लगा।
मोहल्ले के सभी लोग अपने घरों से बाहर आ गये। सब एकटक उस शक्स को देख रहे थे जो कार से अफ़सर के रूप में उतरा। वो वही मदन था जिसे आज़ से 9 साल पहले सभी ने मर चुका मान लिया था। सभी बड़े आश्चर्य कि दृष्टि से उसे देख रहे थे पर कुछ अधेड़ उम्र के पंचायती लोगों की आँखें शर्म से झुकी हुयी थीं मानो वे धरती में गड़े जा रहे हों। दरअसल वो समाज के सबसे निम्न कोटि की जात का था और उसका परिवार उसी मोहल्ले से लगे सबसे कोने की छोटी सी ज़मीन पर अधिग्रहण कर रहता था। युँ तो वहाँ बहुत से घर अधिग्रहण की जमीं पर थे। पर वो तथाकथित ऊँचे जाति के लोग थे इसलिये मोहल्ले की समाज में सम्मानपूर्ण स्थान प्राप्त था। पर मदन के परिवार के साथ ऐसा नही था। गांव की बात तो फ़िर भी छोड़ दें पर छुआछूत जैसी कुप्रथा आज़ भी शहरी समाज में कहीं कहीं दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से विधमान है। फलस्वरूप बचपन से ही मदन ने मोहल्ले वालों की दुश्वारियाँ झेली थी। उसकी माँ मदन के जन्म के साथ ही चल बसी थी। उसके पिता किसी फैक्ट्री में मजदूर थे। इकलौता संतान था मदन उनका। युँ तो बेहद निम्न जाति के बच्चों का बहुत कम प्रतिशत हीं स्कूल की शिक्षा पूरी करता है। पर बचपन से मदन की पढ़ायी के प्रति रुचि को देखते हुए पिता ने एक सरकारी स्कूल में दाख़िला करवा दिया। कुछ ख़ास अपेक्षा तो नहीं थी उनकी मदन से बस महीने के 25 दिन उसका एक जून भोजन का खर्च बच जाएगा वाली बात ज़्यादा महत्व थी उनके लिए। मदन को नाहीं मोहल्ले के बच्चों के साथ खेलने का अधिकार था नाहीं उसके पिता को पुरुष समाज के बीच बैठने का।
वक्त बीता और मदन अब बड़ा हो चुका था और मैट्रिक की परीक्षा सिर पर थी। मदन जी-जान से आगामी परीक्षा की तैयारियों में जुटा था। एक रात वह पढ़ाई कर रहा था तभी उसके घर में कोई आया और उसके पिता को एक पर्ची थमा कर चला गया। पर्ची पढ़कर उसके पिता पुरे परेशान हो गये। कुछ देर बाद बाहर हो-हल्ला मचने लगा। दरअसल सरकारी जमीं पर अवैध रूप से रह रहे लोगों को सरकार की तरफ़ से एक हफ्ते में जगह खाली करने का नोटिस मिला था। सब बहस कर रहें थे कि 15-20 सालों से रह रहे जमीं पर से सरकार अचानक बेदख़ल कर देगी तो वे जाएंगे कहाँ। इससे पहले भी कई बार लोगों ने सरकार से पैसे लेकर उनलोगों की जमीं को मान्यता देने कि गुहार लगा चुके थे। सभा
हुयी सबकी और सबने मिलकर स्थानीय नेता के सहयोग से सरकार के इस क़दम को रोकने कि पहल शुरू करने का फ़ैसला किया। कुल 12 घर ऐसे थे जो अवैध थे। पर जो लिस्ट बनी जिसमें उनलोगों के नाम शामिल थे जो घर छोड़कर न जाने पाने को मज़बूर थे , उसमें 11 घरों का हीं उल्लेख हुआ। मदन के घर को उस लिस्ट में भी जगह न मिली थी। मदन इस बात से अंजान था। वो सोच रहा था कि अभी अच्छे नंबरों से पास करके आगे और मेहनत के साथ पढ़ाई करके बड़ा आदमी बनेगा और सबकुछ ठीक कर देगा।
इधर मदन पढ़ाई में लगा था उधर मोहल्ले वाले उसका घर छोड़ बाकी सभी अवैध घरों पर रहम कि जुगाड़ लगाने लगे। लगभग डेढ़ महीने बीत गये। मदन कि परीक्षा ख़त्म हो चुकी थी और आज़ उसके रिज़ल्ट का दिन था। रिज़ल्ट घोषित हुआ और वो 69% नंबरों के साथ प्रथम श्रेणी से पास हुआ था। घर लौटते वक्त बहुत ख़ुश था मदन उस दिन। रास्ते भर वो अपने पिता कि खुशी और अपनी आगे कि पढ़ाई को ज़ारी रखने की बात सोच रहा था। जब वो घर पहुँचा तो उसके होश उड़ गए। कुछ सरकारी आदमी पूरी तैयारी के साथ उसका घर तोड़ने आये हुए थे । उसके पिता रो रहे थे गिड़गिड़ा रहे थे पर उन सरकारी आदमियों कि कानों में जूं तक न रेंगा। इधर उसका घर टूटा उधर उसके पिता को एक तेज हार्ट अटैक आया और उन्होंने दम तोड़ दिया। मदन अपने पिता कि लाश अपनी गोद में लिए अपने टूटे घर के सामने बैठा चीख चीख कर रो रहा था। पर मोहल्ले वाले में से एक हाँथ भी सांत्वना के लिए आगे न बढ़े। यहाँ तक कि उसके पिता कि लाश को कांधा देने के लिए भी कोई नहीं आया। अपने स्कूल के कुछ दोस्तों के अभिवावकों की सहायता से अंतिम संस्कार कि सारी रस्म पूरी कि मदन ने। अब मदन के पास खोने के लिए कुछ भी नहीं था। न घर न अभिवावक..और वो समाज जिसके दकियानूसी ख़यालातों का शिकार वो बना था।
जिस नदी में उसने अपने पिता की राख़ को बहाया था एक दिन उसी नदी की तेज धारा में उसने छलांग लगा दी। नदी की तेज धारा के कारण उसका कुछ पता न चला। मोहल्ले वालों ने उसे मरा हुआ मान लिया और इस बात कि संतोष कर ली कि अब ये मोहल्ला शुद्ध हो गया। मीलों दूर नदी किनारे कपड़े धो रही कुछ औरतों को मदन बेहोशी कि हालत में मिला। उसकी जान बच गयी और मदन ने अपनी नई ज़िंदगी को एक नया आयाम देने का संकल्प लिया। आज़ 9 साल बाद मदन उन्हीं मोहल्ले वालों के बीच सर उठाए सीना ताने खड़ा था। और मोहल्ले वालों कि हालत जैसै काटो तो खून नहीं। मदन आईएएस ऑफिसर बन चुका था और जिलाधिकारी के रूप में यहाँ उसकी पदोन्नति की गयी थी। मोहल्ले वालों को लगा कि वह अपने साथ हुए अन्याय का बदला लेने आया है। उन्हें लगा कि वह सभी अवैध घरों को तत्काल खाली करने का फ़रमान ज़ारी करेगा और अब मोहल्ले वालों कि कोई गुहार वह सुनने वाला नहीं। पर जब मदन ने बोलना चालू किया तो चमत्कार हो गया। जिस जमीं की लड़ाई को मोहल्ले वाले पिछले 10-15 सालों से लड़ते आ रहें थे उसी जमीं पर सबके मालिकाना हक के ऑर्डर्स मदन नियम और शर्तों के साथ लाया था। ऑर्डर यह था कि सभी अवैध घर वालों को 20 साल के अंदर 8-8 लाख रुपए ज़मा करने होंगे तत्पश्चात उन्हें उस घर पर अपना मालिकाना हक़ मिल जाएगा।