फ्रॉक
फ्रॉक


खुशी आज़ अपने माँ कि तरफ़ बड़ी कौतहूल पूर्वक देख रही थी। माँ ने स्कूल कि फाइनल परीक्षा में टॉप 3 में आने पर उसकी मनपसंद फ्रॉक खरीदने का वादा जो किया था। खुशी ने तो टॉप2 में जगह बना ली। आज रिज़ल्ट्स का दिन था। क्लास टीचर का उसकी माँ के सामने खुशी कि बड़ाई करना खुशी को अपनी मनपसंद फ्रॉक पाने कि दुगनी उम्मीद दे गया। स्कूल से घर आते वक्त माँ द्वारा खरीदी गयी आइसक्रीम खाते हुए खुशी काफी चहक रही थी काफी कुछ बोल रही थी पर माँ एक गहरी खामोशी को मन में दबाये बस उसकी हाँ में हाँ मिला रही थी। यही कोई 3km कि दूरी थी खुशी के घर और उसके स्कूल के बीच। पर उसकी माँ के पास आज के दिन भी इतने पैसे न थे कि आने जाने के लिए बस में चढ़ सके। खुशी के पिताजी के देहांत के बाद बड़ी मुश्किल से कपड़े सिल सिलकर वो गुजारा कर रही थी। सिलाई मशीन भी उधार कि थी जिसके हर महीने वो कमबख्त पड़ोसी 300 रुपए वसूलता। महीने भर कि लगभग 3000 रुपए कि कमाई में 1000 घर के भाड़े में जाते और 350 रुपए खुशी कि स्कूल फ़ीस। 7 साल कि खुशी और 5 साल का आयुष बस यही उसकी दुनिया थी। स्कूल से घर आने के रास्ते में ही पड़ता था वो दुकान जहाँ बाहर लटके फ्रॉक पर खुशी का दिल आ गया था। पिछले 4 सालों से माँ के ही सिले सिलाए कपड़े पहनकर ऊब चुकी थी वो।
पिछले लगभग दो महीने से खुशी इस बात कि ज़िद कर रही थी कि मुझे वो दुकान के बाहर लटकी फ्रॉक चाहिए। क़ीमत थी 600₹। खुशी ने पहली बार किसी भी चीज के लिए इच्छा ज़ाहिर कि थी फलस्वरूप उसकी माँ अपनी ममता के कारण न ही उसकी ज़िद अस्वीकार कर पाती न ही अपने आर्थिक हालात के कारण हाँ कर पाती। झुंझलाहट में एक बार बोल गयी कि आगामी परीक्षा में टॉप 3 म
ें आ जाओ तो खरीद दूंगी। जब दोनों रास्ते में उस दुकान के सामने पहुँचे तो खुशी ने चिल्लाकर कहा माँ देखो माँ वो देखो..वही फ्रॉक है जिसकी मैं बात कर रही थी। माँ बोली हाँ बेटी मैं पैसे लाना भूल गयी हूँ कल खरीद दूंगी। खुशी थोड़ी उदास सी हो गयी। अगले दिन से खुशी हर दिन उस फ्रॉक का जिक्र करती और माँ बस ये कहकर टाल देती कि उतनी दूर जाने का समय नहीं है जब जाऊंगी तो खरीद दूंगी। एक एक बीतता दिन खुशी कि उम्मीदों पर पानी फेरता जा रहा था। अगले सप्ताह से उसकी चौथी कि कक्षा आरम्भ होने वाली थी और उसी दिन उसका जन्मदिन भी था। उसकी माँ ने भरोसा दिया कि उसके जन्मदिन पर वह उसे वो फ्रॉक जरूर लाकर देगी। पर खुशी लगभग ये यकीन कर चुकी थी कि माँ मुझसे झूठे वादे कर रही है। दिन बीते और आज खुशी कि चौथी कक्षा प्रारम्भ होने का दिन था। खुशी ने फिर उन्हीं राहों से जाते समय उस फ्रॉक को इस तरह से देखा जैसै वो उसका कभी पूरा न होने वाला सपना हो। स्कूल से लौटते वक्त उसने पाया कि अब वो फ्रॉक वहाँ नहीं थी.. कोई ले गया शायद। खुशी पुरी निराश हो गयी । उसे लगा जैसे कोई उसकी मुठ्ठी से उसका मनपसंद सामान छीनकर भाग गया। निराश कदमों के साथ वह घर पहुँची। पर अंदर घुसते ही वो आश्चर्य से उछल पड़ी। वही फ्रॉक उसके सामने बिस्तर पर पड़ा था। उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। उसकी चेहरे कि खुशी कि चमक उसकी माँ के चेहरे पर भी झलक रही थी। उसे खाने कि भी सुध न थी वो बस उस फ्रॉक को पहने बार बार आईने में खुद को देखती। अचानक उसका ध्यान अपनी माँ के पैरों पर गया। उसका मन पुरी तरह से कचोट सा गया कि अपने होश संभालने से लेकर अभी तक अपनी माँ के पैरों में जो पायल वो देखते आयी थी..आज वो नहीं था।