आशियाना
आशियाना


अभी गायत्री बालकनी में आकर बैठी ही थी कि ध्यान सामने वाले पेड़ पर बैठी चिड़िया पर पड़ा। आज चहचहाहट कुछ तेज़ थी मानो किसी गहन कार्य पर चर्चा चल रही हो। बहुत देर तक चिड़ियों का चहकना जारी रहा और गायत्री देवी मुग्ध होकर सुनती रहीं।
चिड़ियों को यूं देखने का सिलसिला मानों अब रोजमर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा बन चुका था। एक रोज़ चिड़िया की चोंच में दबे तिनके को देखकर गायत्री सालों पहले की याद में चली गई थीं याद उनके घर की जिसे एक मजबूरी की वजह से वो कब का छोड़ चुकी थी और अब इस इमारती मकान को घर बनाने की कोशिश कर रही थीं।
आज से लगभग पचास साल पहले ब्याह कर आई गायत्री पति के साथ सरकारी क्वार्टर के दो कमरों में अपना जीवन खुशी से गुजर-बसर करती हुई जब समझदारी और सयानेपन की चौखट तक पहुंची तो खुद के आशियाने के बनने-बनाने के सपने आंखों में कब सजने लगे पता ही नहीं चला। रेलवे पुलिस में एक मामूली हवलदार की छोटी सी तनख्वाह में अपने सपने को सच कर पाना बेहद मुश्किल था लेकिन गायत्री की चाह ने राह बनाना भी सीख लिया था। सिलाई-बुनाई जैसे न जाने कितने ही छोटे-बड़े कामों में लगकर उसने आखिर एक छोटा सा घर खड़ा करने जितनी रकम जमा कर ही ली थी। हालांकि पति ने भी साथ निभाने और मेहनत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। कालोनी बसने से पहले जंगल के बीच अपने बेटे-बेटी की सुरक्षा के साथ अपने सपने को सच करने का भार कहीं न कहीं अकेली गायत्री के कंधों पर ही था क्योंकि पति का नौकरी से वक्त निकल पाना मुश्किल था।
मजदूरों के साथ मज़दूरी करके अथक प्रयासों के बाद रहनेभर की जगह तो बनकर तैयार थी लेकिन पति की नौकरी के बाद की जिन्दगी गुजर-बसर करने के ख्याल से एक मंज़िल और बनाने की इच्छा मन में थी लेकिन पैसों की कमी ने ख्यालों पर रोक लगा दी थी।
गायत्री की रातों की नींद खो गई थी और मुश्किल का समाधान मिलना मुश्किल हो गया था कि तभी उम्मीद की एक नहीं राह दिखाई दी थी। गायत्री ने अपने गहनों को बेचने का निर्णय कर लिया था लेकिन पति को मनाना कठिन था। कितनी ही कोशिशों के बाद आखिर उसके पति ने हां कही थी वो भी इस वादे के साथ की एक रोज़ वो उसे उसके गहने वापस दिलवा देंगे।
घर बनने के बाद नेमप्लेट पर तो नाम पति का लिखा गया था लेकिन घर को बड़े ही स्नेह से पति ने नाम दिया था 'गायत्री निवास'। जब पहली दफा बेटे ने बताया था न कि ने नेमप्लेट प
र पति के नाम के ऊपर उसका नाम लिखा है तब पढ़ी-लिखी न होने के बावजूद उसने उस नेमप्लेट को छूने पर जो खुशी महसूस की थी वो उसकी आंखों से बहती नजर आ रही थी।
वक्त के साथ जंगल बसने लगा और लोगों के बीच अपनी एक मजबूत पहचान गायत्री निवास ने कब बना ली पता ही नहीं चला। डाक लाने वाले पोस्टमैन से लेकर आधुनिक ज़माने वाले डिलीवरी बॉय और तक को पता था कि गायत्री निवास कहां है।
पति जब भी गहने बनवाने की बात करते तब गायत्री अक्सर बात को टाल देती। वक्त अपनी गति से गुजरता गया और वादे जिम्मेदारियों तले कहीं दब गए। पहले बच्चों की पढ़ाई फिर बिटिया की शादी न जाने कितने ही किस्सों का गवाह बना घर बच्चों की नजरों में कब जर्जर मकान बन गया गायत्री को पता ही नहीं चला।
बेटा पढ़ने के लिए दूसरे शहर चला गया और फिर शादी के बाद वहीं बस गया।
वक्त अपनी गति से बढ़ रहा था और उम्र भी, एक रोज पति ने भी साथ छोड़ दिया। बेटा मां से साथ चलने की जिद्द करने लगा और आखिर बेटे के मोह ने गायत्री को अपना आशियां छोड़ने पर मजबूर कर दिया।
गायत्री कभी-कभार अपने आशियाने को देखने आया करती थी फिर एक रोज़ जब बेटे ने अच्छी कीमत मिलने पर घर बेचने का हवाला दिया तो गायत्री का दिल इतनी जोर से टूटा की फिर जुड़ा ही नहीं।
अपने आशियाने को किसी दूसरे को सौंपना सोच कर ही दिल कांप रहा था। अपने घर को बनाने के वो पल अचानक ही गायत्री की आंखों के सामने से गुजर रहे थे।
बेटे को समझाना भी व्यर्थ था आखिर कितने दिन की जिंदगी है एक न एक दिन तो इस घर को बिकना ही है ऐसे अनगिनत दिलासे दिल को देकर आखिर गायत्री ने हामी भर दी और छोड़ दिया आशियाना।
गायत्री निवास की वो नेमप्लेट गायत्री शायद एक उम्मीद से साथ लायी थी उम्मीद एक रोज़ फिर अपना आशियां बनाने की गायत्री निवास को फिर बसाने की।
लेकिन बेटे के स्वीट होम के आगे वो विचार भी कहीं पीछे रह गया, साथ रह गई तो बस उस आशियाने की याद।
कॉलोनी के मंदिर की घंटियों ने गायत्री को एक बार फिर वर्तमान में लाकर खड़ा कर दिया था। चिड़ियों का घोंसला बना चुका था। इस बात की खुशी उनकी चहचहाहट से साफ सुनाई दे रही थी।
गायत्री देवी दोनों हाथ जोड़कर एक बार फिर ईश्वर से प्रार्थना कर रहीं थीं कि कभी किसी को अपना आशियाना न छोड़ना पड़े।