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Shobha Goyal

Others

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Shobha Goyal

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यशोधरा का बंसत

यशोधरा का बंसत

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फिर से नव बसंत है आया 

पर कैसा मधुमास है छाया 

चले गए मेरे मनमीत 

छोड़ कर राजपाट

बन गए मन बैरागी

मोहमाया रही न शेष।


चारों ओर खिल रही

पीत वन-वल्लरियां

पक्षी करते कलरव किलोर

धरती झूम उठीं मनमोर

किन्तु मेरे मन आंगन में

पतझड़ रह गया शेष।


पीली पीली छटा है छाई

पीतांबर धर धरा मुस्कुराई

सरसों गुलाब जुही चमेली

चारों तरफ हरियाली ‌आई

किन्तु मेरे मन के इंद्रधनुष में

बचा न कोई रंग शेष।


पपीहे कोकिल हुए मतवाले 

नभ में दिनकर डेरा डाले

खग मीठा गान सुनाते

लहरे भी सुर ताल मिलाते

किन्तु अब मेरे मन में

रही न कोई धुन शेष।


धरा से अम्बर का मिलन 

कर क्षितिज हुआ विभोर

प्रकृति भी मदमस्त हुई

देख कर अपने चितचोर

किन्तु संबंधों की परिधि में

रहा न अब कुछ शेष।


चुना तुमने ज्ञान का मार्ग

बैठ गए लगा के ध्यान

देखते न मेरी ओर

ये कैसा किया अपमान

मै ठहरी अद्धधागनी तुम्हारी

करती रहूंगी पूजा विशेष।


तुम हो पुरुष परम ज्ञानी

मै ठहरी नारी अज्ञानी

तुम्हारे पथ को रोक न सकूंगी

मेरे मन को कसकर थाम लूंगी

यदि तुम साथ ले जाते

फिर भी मुझको बाधक न पाते

बिता लेती जीवन शेष।


मेरे मन की उथल-पुथल को

तुम्हारे चक्षु देख न सकेंगे

मै इक नारी पत्नी तुम्हारी

निज से कर पालित पोषित

मां हू बंधी हुई हूं ममता से 

जाओ तुम करो कर्म विशेष।


स्त्री सहती सारे पुरुष दंश

सीता राधा उर्मिला अहिल्या

युग युग से छली गई नारी

त्याग कर पुरुष बने अभिमानी

चाहे छोड़ा वन में या घर में

हिस्से आई बिरह वेदना नारी के।


लंबी हो गई कालरात्रि

चारों ओर छाया है तम

इसको मेरा दुर्भाग्य न कहो

क्योंकि मैं हूं यशोधरा का बसंत

जिसमें रही न आभा शेष।


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