STORYMIRROR

Pandey Sarita

Others

4  

Pandey Sarita

Others

यक्षिणी

यक्षिणी

2 mins
308


कहाँ भूल सकती हूँ?

01/01/2008

केरल,पालक्काड डैम के किनारे,

एक तरफ़ खुले आकाश के नीचे बैठी

यक्षिणी की श्यामल नग्न प्रतिमा!

जो संभवतः किसी समय में

दक्षिण भारतीय पारंपरिक 

सामान्य स्त्री की रंगत वाली काया में होगी

आज वक्त की निर्दयता और साजो-सज्जा में

उपेक्षा दर्शाती,

लिए उत्तेजक भाव-भंगिमा,

बिखराए कुंतल बाल!

मांसल,स्थूल, गदराया यौवन,

लेती अंगड़ाई प्रणय निवेदन,

करती अर्पण,

बैठी दोनों पैर फैलाए,

यौवनांग प्रदर्शन 

कामोत्तेजक मुद्रा!

रति आमंत्रण करती प्रिया!

हया छुपी है पलकों में,

तभी है बंद उसकी आँखें !

होगा रोमांच नश-नश में,

तभी अटकी उसकी साँसें!

वो खुला उन्नत वक्ष!

पोर-पोर पर ठहरती नज़र,

कटि समक्ष।

उठे घुटने पाँव जमीन पर टिकाए,

हाँथों के सहारे पीछे 

सिर को झुकाए;

लेती अंगड़ाई, 

मन का भाव 

मुख छवि पर छलकाए।

आओ गले लगाकर,

पूरी कर लो सारी अभिलाषा!

स्मिता गढ़ती अजब सी, 

प्रकृति-पुरुष के प्रेम की भाषा!

पर एक बात है,

रहस्य जो भी हो,

अपेक्षा या पौराणिकता में छिपी

मूर्तिकार कनाई कुन्हीरमन की भावना!

जो सिर्फ़ एक चट्टान को काटकर

सन् 1969 में बनाई गई।

पर है बड़ा ही जीवंत,

उस श्यामल रूप में भी

मनु कोई सम्पूर्ण प्रभाव छिपा।

पढ़नेवाला पढ़ ही लेगा,

अनुभूतिगत सम्पूर्ण प्रभाव

नहीं, नहीं, कहीं नहीं 

दिखता कोई अभाव!

सौंदर्य साधना,आराधना 

क्या देखोगे?

तुम पर निर्भर!

हाँ,देखा है मैंने!

देखनेवाले देखते हैं ज़रूर, 

अन्तर्तम की छिपी कामना!

निहारने की उन्मुक्त भावना!

जहाँ नहीं कोई प्रतिबंध। 

मिलती यहाँ बाल-सुलभ 

कौमार्य-व्यस्क जिज्ञासु अनुबंध।

संतुष्टि!

मन में उभरता जो उद्वेलन!

थके-उबे बोझिल प्रौढ़ 

बुजुर्गी आँखों का रसास्वादन!

चर्चा होती ज़रूर, 

मित्रमंडली में खुलकर,

संगिनी से एकांत में मिलकर,

गुज़रनेवाले उस क्षण

कुछ घाघ,कुछ छिपी नज़रों से, 

पलक-अपलक निहारते हैं।

मुँह बिचकाकर

ओह!मैंने देखा ही नहीं।

अनजाना,अनभिज्ञता सा उभारते हैं।

मानों कोई साक्षात् शिवस्वयंभू हो।

मुक्त प्रभाव रति-कामदेव से जो,

और मैं!

सकोच गई एक पल को,

ज्यों वह प्रतिमा न हो;

मैं ही जीवंत!

उसकी परछाई!

देख रहे सभी मुझे!

पिया समक्ष ढिठाई।

फिर सौंदर्य साधना की स्मृति हो आई।

मुझे वह स्थिति में लाई।

निष्पाप-अप्रभावित सी कर गई ख़ुद को,

लज्जा की सुंदर परिधि

और कला के अप्रतिम उद्धरण पर

देखने वालों देखते रहो।

स्त्री अप्रतिम सौंदर्य है।

प्रस्तुत है तुम्हारे समक्ष,

विविध रूप और प्रभाव में

माँ,बहन,संगिनी,बेटी बनकर

समयानुसार आता जो

सदा ही समक्ष उभरकर;

हाँ, मैंने देखा

वह रूप विशेष!

कर रहे कामदेव अभिषेक!

प्रणय! प्रेम का सत्य एक;

देखनेवालों ये भी देखना

इस निमंत्रण में जो

विवशता हीनता,लाचारी नहीं है।

कहीं किसी रूप में 

पाप-वासना,दानवता,

विनाश की महामारी नहीं है ।

किस प्रकार खुला

स्वैच्छिक समर्पण ?

वह पात्र भी अवश्य

सुयोग्य मनभावन ही होगा।

जिसकी प्रिया ने यूँ समर्पण किया ।

 


Rate this content
Log in