वृद्धाश्रम
वृद्धाश्रम
जिन्हें अपने हाथों से पाला उनकी ही पहचान ना हुई,
मौत के क़रीब पहुँच कर भी ज़िन्दगी आसान ना हुई।
उनकी ख़्वाहिशों खातिर अपनी ज़रूरतें तक भूल गए,
फ़र्ज रही उनके लिए हमारी हर कुर्बानी एहसान ना हुई।
विदेश भेजकर हम भी आकाश के सपने सजाने लगे,
ज़मीन, ज़मीन ही रही हमारे लिए, आसमान ना हुई।
जिनको इस क़ाबिल बनाया कि किसी क़ाबिल बन पाऐं,
वो क़ाबिलियत हमें इस हाल में देखकर हैरान ना हुई।
अब भी उम्मीद लगाकर बैठे कि छूऐगा आकर पैरों को,
तेरी राह देखते-२ अबतक बूढ़ी आँखों में थकान ना हुई।
अगर वो मिलें कभी तो हमारा सन्देश दे देना अशीश,
तू जो हमसे मोहब्बत करता था वो क्यूँ बयान ना हुई।