वो जकड़ा वृक्ष
वो जकड़ा वृक्ष
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खिड़की से बाहर झाकती हूँ... जब जब।।
सहम सी जाती हूँ मैं...उस वृक्ष को देखती हूँ जब जब।।
जिसे दूसरे वृक्ष ने जकड़ा है ऐसे..किसी गुनाह की सजा दे रहा हो जैसे।।
और वो वृक्ष मानो...मजबूर होकर बस...तड़प ही रहा हो।।
हवा के हर झोंके से जैसे... मुक्त होने की फरियाद सी कर रहा हो।।
सहम जाती हूँ...उस वृक्ष की विडम्बना को देखकर कि....
क्यों इतना मजबूर है वो ....क्यों इस तरह से कैद है वो।।
उसके तानों से उखड़ती छाले भी....उसकी थकावट को बयाँ कर रही है।।
उसकी शाखाएं लटक सी गयी है ....मानों थक गया हो वह खुद हो छुड़ाने के प्रयास में।।
उसके पत्तें भी अब झड-झड़कर... उसका साथ छोड़ देना चाहते है।।
उसकी डाले भी टूटकर अब...उस बंधन से मुक्त हो जाना चाहती है।।
उसकी आज़ाद होने की तड़प भी अब....खत्म सी होती दिखाई देती है।।
क्यों उसके बंधन कोई मुक्त नही कर पाता...क्यों दुनिया की यह भीड़ उसे देख नही पाती...क्यों वह अकेला ही रह जाता।।
क्यों जीवन के इस संघर्ष में ...उसी की डालियों ने उसका साथ छोड़ दिया।।
पत्तों ने भी पतझड़ से पहले ही...क्यों अपना मुहँ मोड़ लिया।।
झड-झड़कर क्यों उन्होंने...सिर्फ आज़ादी की चाह में... वृक्ष को छोड़ दिया संघर्ष की बीच राह में।।
सहम जाती हूँ मैं...ये देखकर कि...इस स्वार्थी दुनिया में अब तो वृक्ष भी पीछे नही रहे।।
उस वृक्ष की शाखाओ व पत्तों ने भी उसका साथ छोड़ दिया...उसी तरह इन्सान ने भी भाईचारे को छोड़ दिया।।
वो जकड़ा हुआ वृक्ष...एक दर्पण ही तो है...हमारे जीवन के संघर्ष का।
जिंदगी के उतार चढ़ाव से जूझता हमारा जीवन...उस जकडे वृक्ष की तरह ही है।।
पेड़ के अपने हिस्से जैसे उसको ही भूल गये....इन दु:खद परिस्थितियों में उसे अकेला ही छोड़ गये।।
उसी तरह इंसान ने भी अपनापन छोड़ दिया...आगे निकलने की इस होड़ में वो बाकी सब कुछ भूल गया।।
वो जकड़ा वृक्ष....बहुत कुछ याद दिलाता है.....जब भी सोचती हूँ उसके बारे में..ना जाने क्यों मेरा मन भर आता है।।
उसकी यह दशा मुझे ...झकझोर देती है अन्दर तक।।
खिड़की से बाहर झाकती हूँ...जब जब।।
सहम सी जाती हूँ मैं..उस वृक्ष को देखती हूँ जब जब।।
देखकर उसके दर्द को...उसकी टूटती आशाओं को...उसके उस जकड़े..असहनीय रूप को।।
जो हमारे टूटते समाज की परछाई सी लगता है मुझे।।
देखकर यह सब....
सहम जाती हूँ मैं...सहम जाती हूँ मैं...सहम जाती हूँ मैं।।।।