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उल्फ़त

उल्फ़त

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अब नही कूबत मुझ में तुझ से रूबरू होने की

तेरे आशियाने का दामन जो छोड़ दिया मैंने,

जीता था तुझ में तुझ से जिया करता था ,

घूंट कड़वे ही सही उल्फ़त के पिया करता था,

टूटे जो उल्फ़त के प्याले तो तराशना छोड़ दिया मैंने,

अब नही कूबत....


मासूमियत झलकती निगाहें तेरी,

मासूमियत भरा मेरा हर इक ख़्वाब था,

निग़ाहों से बहते नूर का मैं ही तो हक़दार था,

अपने ही हक़ के वजूद को पैरों तले रौंद दिया मैंने,

अब नही कूबत....


कहाँ बरसी थी रहमत मुझ पर ना जाने कौन सवार था,

दिन दिन नही मेरा रात का क्या सवाल था,

रातें ख्वाबों में गुम थी उन गुमराह ख्वाबों को अब तोड़ दिया मैंने,

अब नही कूबत तुझसे रूबरू होने की

तेरे आशियाने का दामन छोड़ दिया मैंने ।



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