तृण की तरह काँपता हृदय मेरा
तृण की तरह काँपता हृदय मेरा
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जीवन के इस भँवर में नाचूँ तृण के सदृश बस,
इस नियति ने हर डगर छीना है दायित्व मेरा !
कुछ मेरा न बाकी रह गया अस्तित्व के तल पर,
समय के जाल में तड़पी सदृश मैं मीन होकर !
भूमि ने पुरुहूत माना अपने समय की देहरी को,
जिस देहरी पर मैं इक सदी से दीनहीन होकर !
छंद बन उपजा हृदय में फिर बहा मुक्त होकर,
क्या सुनाऊँ गीत,मुक्तक बना लालित्य खोकर !
ध्यान अब आती नहीं,बीते कल की कोई बात,
थक गए हैं चेतना द्वार की साँकल बजाकर।
काल के गिद्ध के हाथों सौंपना न यूँ खुद को,
दोनों पलकें जतन से मुंदकर बैठी आँखें रत्नार।