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VanyA V@idehi

Others

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VanyA V@idehi

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तृण की तरह काँपता हृदय मेरा

तृण की तरह काँपता हृदय मेरा

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जीवन के इस भँवर में नाचूँ तृण के सदृश बस,

इस नियति ने हर डगर छीना है दायित्व मेरा !

कुछ मेरा न बाकी रह गया अस्तित्व के तल पर,

समय के जाल में तड़पी सदृश मैं मीन होकर !


भूमि ने पुरुहूत माना अपने समय की देहरी को,

जिस देहरी पर मैं इक सदी से दीनहीन होकर !

छंद बन उपजा हृदय में फिर बहा मुक्त होकर,

क्या सुनाऊँ गीत,मुक्तक बना लालित्य खोकर !


ध्यान अब आती नहीं,बीते कल की कोई बात,

थक गए हैं चेतना द्वार की साँकल बजाकर।

काल के गिद्ध के हाथों सौंपना न यूँ खुद को,

दोनों पलकें जतन से मुंदकर बैठी आँखें रत्नार।



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