सुकून
सुकून
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सूखी रोटी के भी स्वाद से निवाला होता था,
कच्चे मकानों की भी बस्ती मतवाला होता था।
सुबह सूरज का उगना बड़ी रौनक सा था,
अपनेपन का जैसे हर दिल में खेला होता था।
गरीबी में भी मेहनत का खूब सुकून था,
फिर क्यों ना अपने पैरों में छाला होता था।
त्यौहार में सबके लिऐ खुशियों का पैगाम था,
चाहे घर की छतों पर लगा जाला होता था।
वहां हर रिश्ता प्रेम समर्पण से रूबरू था,
मन में ना किसी के कोई काला होता था।