सोच की नज़र
सोच की नज़र
दिखता नहीं तुमसा जहां तक सोच की नज़र जाती है,
तेरी ईक ही दुआ से माँ, मेरी बिगड़ी संवर जाती है।
अलग ही सुकून मिलता तुझे सजदा करने से अम्मी,
दिल जो पाकीज़ा हो जाता और रूह निखर जाती है।
बाकी रिश्ते फ़ीके पड़ जाते किसी ना किसी मोड़ पर,
पर माँ की खूशबू दिल में सदा के लिए ठहर जाती है।
जो बेदर्द खताएं खुदा की नज़र में पाप से कम नहीं,
माँ जैसी शख़्सियत ऐसे गुनाह भी माफ़ कर जाती है।
कौन करता इस मतलबी ज़माने में कोई इतनी फ़िक्र,
शाम को मेरे चंद लम्हे देरी आने से वो डर जाती है।
यूं तो लगी रहती दिन-रात ही उसकी इबादत में माँ,
पर बच्चों के लिए तो उस खुदा से भी लड़ जाती है।
माँ पर लिखते वक्त लफ्ज़ जज़बाती हो जाते अशीश,
और उसकी सख्त जिंदगी देख मेरी आँख भर जाती है।