शायद
शायद

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शायद यही तो होना था,
इंसान को भी तो कुछ खोना था,
इत्तेफ़ाक़ कहो या रब की साज़िश,
इंसानियत को भी तो थोड़ा रोना था।
ज़मीन से आसमान तक,
आज सन्नाटा छाया है
गुफ्तगू का हक़,
सिर्फ परिंदो ने पाया है।
कैद खिड़कियों के पीछे,
ज़ंजीरो में है दुनिया इंसानो की
चेहरे छुपे नक़ाबों के नीचे,
हैरान है दुनिया हैवानो की।
ज़रा गौर फ़रमाइये जनाब,
ये वक़्त नहीं तनाव का
कुदरत का ये सैलाब है,
ये वक़्त है सुझाव का।
शायद यही तो होना था,
इंसान को भी तो कुछ खोना था
इत्तेफ़ाक़ कहो या रब की साज़िश,
इंसानियत को भी तो थोड़ा रोना था।