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सेवानिवृति के बाद पिता की स्थिति

सेवानिवृति के बाद पिता की स्थिति

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घर बैठते ही अहमियत खत्म होते देख रहा कमज़ोर निगाह से,

कभी चलता था पूरे घर का खर्चा जिस अकेले की तनख़्वाह से।

 

फ़ैंसला मानने वाले अब मशवरा लेना भी मुनासिब नहीं समझते,

बेदखल सा हुआ वो घर के मामलों में ली जाने वाली सलाह से।

कभी चलता था पूरे घर का खर्चा जिस अकेले की तनख़्वाह से।

 

ख़्वाब तो बहुत दूर की बात, अब जरूरतें भी अधूरी सी लगती हैं,

लगने लगे उसे बची ज़िन्दगी के बचे आखिरी अरमान तबाह से।

कभी चलता था पूरे घर का खर्चा जिस अकेले की तनख़्वाह से।

 

जिन्हें दुआऐं देते आ रहा उनके लफ़्ज़ बददुआओं से भी बुरे हुए,

अब सजदे में सोचता है कि किसके लिए क्या दुआ माँगू ख़ुदा से।

कभी चलता था पूरे घर का खर्चा जिस अकेले की तनख़्वाह से।

 

उसे उम्मीद थी जब जिस्म जवाब देने लगेगा तो वो सहारा बनेंगे,

पर वो मेरी सेहत मेरी ज़िन्दगी के लिए भी हो गए बेपरवाह से।

कभी चलता था पूरे घर का ख़र्चा जिस अकेले की तनख़्वाह से।

 

पैंशन की पाई-२ लगा दी जिन औलादों का घर बसाने के लिए,

अशीश, पाई-२ का मोहताज बना दिया उन्होंने मुझे किस वजह से।

 

कभी चलता था पूरे घर का खर्चा जिस अकेले की तनख़्वाह से।


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