साहब
साहब
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हम से नफ़रत वाजिब है साहब
जो न किए नफरत तो मोहब्बत हो
जाना वाजिब है साहब
तजुर्बा कभी बेकार नहीं जाता
साहब
महफ़िल की वाह में अपनी आह
छुपी होती है साहब
हम शायरी नहीं खुद पर गुज़री
दास्तान सुनाते है साहब
कभी ख़ुशी होती होंगी तो कभी
आँखें भर जाती होंगी साहब
मेरी शायरी में हो सकता है
तुम्हें अपनी
कहानी नज़र आती होंगी साहब।
