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परिंदा

परिंदा

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सोचो अगर तो दिल भी परिंदा है,

ख्यालों के पंख लगाकर उड़ता है,

दिल भी उड़ता है दूर तक जाता है,

उड़ने वाला ही तो परिंदा कहलाता है।

 

परिंदे को उड़ने से रोकना मना है,

पंख काटकर पिंजरे में रखना गुनाह है,

फिर मन का कोई रोकता क्यों रास्ता है?

ख़्वाबों के आसमां में ही तो भागता है।

 

कतरकर पर दिल के होगा भी क्या  ?

मिलेगा क्या उसको बंधन के सिवा।

पंख फैलाये और भर ले उड़ान,

छू लेगा अपने सपनों का आसमान।

 

चलेगा,उड़ेगा जब दूर तक वो,

हवा का रुख पहचान पायेगा तभी तो,

सीख लेगा बचाना तूफां से खुद को,

हिम्मत से कुछ कर पाएगा तभी तो।   

 

परिंदा लौटकर घोंसले में आता है,

मन भी कहीं कब रुक पाता है,

दिन-रात की फ़िक्र गमों का साया,

उड़कर आज़ादी का लम्हा ही तो पाया।


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