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ज्योति शर्मा

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ज्योति शर्मा

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पंक्तियां

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ज़िन्दगी की दौड़ में यह कैसी मारामारी की अपनी ही परछाई कहती है कौन हूं मैं?

पलट कर देखा तो मैं हूं , परछाई तो किसी और की है . 

अच्छा है दूसरे की परछाई वो हो गई .

अपनी पर तो शायद मैं ही शर्मा जाती क्यों कि जो थी वो मैं नहीं और जो वो है वो में नहीं.

आंखो में आते हैं वो आंसू भी अब गीले नहीं होते

दर्द दूसरों के होते है या अपनों के होते है.

कुछ साफ तस्वीर सी नज़र नहीं आती धुंध सी छाई है

पता नहीं आंखो मैं नमी है या तस्वीर पर ही धूल छाई है.


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