पग से बढ़ता
पग से बढ़ता
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मैं पग से बढ़ता ! बढ़ता ही जाऊँ
कैसी गली जैसा भी जमाना
आग लगी हो भरता हर्जाना
धूप आये पर आये न मुझ तक
सुबह से चलूं मैं चलूं शाम तक
आग लगी हो जली राख हो
सभी पर अपना प्रभुत्व जमाऊँ
मैं पग से बढ़ता ! बढ़ता ही जाऊँ
साँस फूलती हो चाहे
दम घुटता, हवा चलती हो चाहे
भ्रम करता धीर न तनिक खोता
अधीर से एक आवाज़ आती पर्वत
पीर से दाव चलूं मैं पेंच न घुमाऊँ
आग लगी हो राख को जलाऊँ
मैं पग से बढ़ता ! बढ़ता ही जाऊँ