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Karan kovind Kovind

Others

4.7  

Karan kovind Kovind

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पग से बढ़ता

पग से बढ़ता

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मैं पग से बढ़ता ! बढ़ता ही जाऊँ

कैसी गली जैसा भी जमाना

आग लगी हो भरता हर्जाना

धूप आये पर आये न मुझ तक

सुबह से चलूं मैं चलूं शाम तक

आग लगी हो जली राख हो

सभी पर अपना प्रभुत्व जमाऊँ


मैं पग से बढ़ता ! बढ़ता ही जाऊँ

साँस फूलती हो चाहे

दम घुटता, हवा चलती हो चाहे

भ्रम करता धीर न तनिक खोता

अधीर से एक आवाज़ आती पर्वत

पीर से दाव चलूं मैं पेंच न घुमाऊँ

आग लगी हो राख को जलाऊँ

मैं पग से बढ़ता ! बढ़ता ही जाऊँ



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