नया परवाज़
नया परवाज़
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यहाँ हर नुक्कड़ पे एक नया ख़ुर्शीद
हर रात एक नया ख़्वाब
और हर सुबह एक नया परवाज़ …
यहाँ से रोज़ सुबह एक क़ाफ़िला निकलता है
तुम्हारे ख़ुल्द से मेरे बोसीदा फ़लक तक
और क्या रखु मैं तवक़्क़ो तुमसे ए साक़ी
जो मुक़म्मल है ज़िन्दगी इसी ताबीर-ए-ख़्वाब से !