मुल्क या मज़हब
मुल्क या मज़हब
ऐ मेरे इस मुल्क के लोगों
आपस में मिलकर रहिए,
हिन्दू-मुस्लिम भूल के खुद को
हिन्दुस्तानी बस कहिए।
मंदिर हो या मस्जिद सब में
एक खुदा ही बसता है,
फिर क्यों राम-रहीम की खातिर
हिन्दू-मुस्लिम लड़ता है,
मंदिर-मस्जिद में फँस करके
इंसानियत न ख़त्म कीजिए,
हिन्दू-मुस्लिम भूल के खुद को
हिन्दुस्तानी बस कहिए।
गौ हत्या पर लड़ मरते हो
बाकी बात नहीं करते,
बे-जुबान पशुओं की चिंता
संग में क्यों नहीं तुम करते।
अपने मतलब की खातिर
इनका बँटवारा मत करिए,
हिन्दू-मुस्लिम भूल के खुद को
हिन्दुस्तानी बस कहिए।
एक-दूजे के बेटी-बहन की
अस्मत दोनों लूट रहे,
आने वाली पीढ़ी के रग में
कैसा विष है घोल रहे।
अपने अहम की आग में अपने
मासूमों को न जलाइए,
हिन्दू-मुस्लिम भूल के खुद को
हिन्दुस्तानी बस कहिए।
कौन सा धर्म था उनका
जिन्होंने छाती पर गोलियाँ खाई थी,
देश की आज़ादी के खातिर
अपनी बली चढ़ाई थी।
याद करके उनकी कुर्बानी
देश पर थोड़ा रहम कीजिए,
हिन्दू-मुस्लिम भूल के खुद को
हिन्दुस्तानी बस कहिए।
राजनीति में फँस करके तुम
आपस में क्यों लड़ते हो,
नेताओं के भड़काने से
गलत काम क्यों करते हो।
बहुत सुन चुके नेताओं की
खुद के दिल की अब सुनिए
हिन्दू-मुस्लिम भूल के खुद को
हिन्दुस्तानी बस कहिए।
मज़हब नहीं सिखाता है कि
आपस में तुम बैर करो,
सब कुछ अच्छा हो जाएगा
बस थोड़ा सा धैर्य धरो।
जन्नत सा यह देश तुम्हारा
दोजख इसे न बनाइए,
हिन्दू-मुस्लिम भूल के खुद को
हिन्दुस्तानी बस कहिए
