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Jayant Paul

Others

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Jayant Paul

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मिट्टी की चाह

मिट्टी की चाह

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था जैसे मैं एक धूल का कोई कण

जीवन मेरा इस ज़मीन सा कठोर

कुचल के मुझे बढ़ता रहा हर छन

आइना-ए-किस्मत में दिखता ज़मींदोज़


पर कायदों से परे एक ख्वाहिश है मेरी

रखा था ज़िंदा जिसे टूटकर भी मैंने

कि जुड़कर किसी क़तरे से इक रोज़

बदशक्ल इस ज़िन्दगी को सूरत दे पाऊँ

ख़ुद को देकर इक वजूद मैं भी

इबादत-गाह में रखी वो मूरत बन पाऊँ


पर ठहरा तो मैं एक सूखी धूल

बिन रूह के मद्दे कि आरज़ू भी क्या

जो ना रह सकता ख़ुद अपने बस में

बेसूद ख्वाहिशों कि उसे ज़ुस्तज़ू भी क्या


पर फिर आना तुम कभी ओस बन के

मौजूदगी से अपनी मुझे तुम तर जाना

सूखा रह लिया मैं बहुत आज तक

इस सूखेपन में दरिया तुम भर जाना

छू कर मुझे तुम मूरत कर जाना।



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