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मिट्टी का घर

मिट्टी का घर

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वो मिट्टी का घर बहुत याद आता है,

वो बीच में एक छोटा सा आँगन,

जिससे सटा एक नीम का पेड़ हुआ करता था।


वो घर जहाँ मेरे नाना नानी रहते थे,

जहाँ हर साल मैं छुट्टी बिताने जाया करता था,

जहाँ मेरा बचपन खिल-खिलाया करता था।


वो घर जिसके आँगन में जब बारिश हुआ करती थी,

तब हम उसमें नाव चलाते थे।


जहाँ रात को खुले आसमान में,

सोते वक़्त नाना मुझे कहानी सुनाया करते थे।


जहाँ नानी से चुपके से पैसे लेके,

हम टॉफियां खाया करते थे।


वो घर जहाँ मौसी-मामा के चुटकियों पे,

हम लोट-लोट के हँसा करते थे।


जहाँ गर्मियों की दोपहर में हम दो रुपए की,

आइस क्रीम के लुफ़्त उठाया करते थे।


जहाँ दिन खेलते-कूदते बस यूँही निकल जाया करते थे,

वो घर जहाँ टेप चला के हम सब बच्चे,

जी भर के डांस किया करते थे।


जहाँ शाम को घूमने जाना,

बाहर खाने के क्या मज़े हुआ करते थे।


जैसे क्या मिल गया हो, और रात को थक के,

हम सब एक ही चादर में सिमट के सो जाया करते थे।


वो घर जहाँ नाना हर रोज़ सुबह,

हमारे लिए जलेबी लाया करते थे।


जहाँ जाड़ों में सब कोई,

लकड़ी जला लौ तापा करता था।


जब धुप निकलती थी तो सब कोई,

आँगन में जमघट लगा लिया करता था।


और बातों और मूंगफलियों के साथ कैसे,

वक़्त गुज़र जाया करता था पता ही नहीं चलता था।


सच में वो मिट्टी का घर बहुत याद आता है,

जहाँ रिश्तों के अलग ही मायने हुआ करते थे,

जहाँ दिन हँसते-हँसते गुज़र जाया करते थे।


वो घर जहाँ मेरा बचपन खिल-खिलाया करता था,

वो घर जहाँ मेरे नाना-नानी रहा करते थे।


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