मैं और सरकार - 1
मैं और सरकार - 1
मैं
बंद कमरे के खुले झरोखों से झांकता
सरकार खुले मन से बस्तियों के बंद दरवाज़े देखती।
किताबों से वाबस्ता दोनों ही
मैं और सरकार
मेरी अलमारी में भरी हैं किताबें
सरकार ख़ुद भरी है एक किताब के पन्नों में
जिसका नाम है संविधान!
मैं और सरकार
दोनों ही उलझे हुए तंत्रों में
मेरे इर्द- गिर्द पाचन तंत्र, श्वसन तंत्र
सरकार के चारों ओर लोकतंत्र जनतंत्र गणतंत्र।
मैं और सरकार
धोते हैं बार- बार दोनों ही हाथ
मैं हाथ धोकर आता हूं भोजन की थाली के समक्ष
सरकार निपटती है हाथ धोकर पीछे पड़े विपक्ष से!
मैं और सरकार
गाते हैं गुनगुनाते हैं दोनों ही
मैं गुनगुनाता हूं उस उम्र के नगमे
जो छूट गई है कहीं बहुत पीछे
सरकार भी लेती है आलाप
गाती है प्रशस्ति गान स्वरचित!
मैं और सरकार
नाचते भी हैं कभी - कभी आल्हाद से
मैं थिरकता हूं खाते में आते ही पेंशन
सरकार का नर्तन होता है विश्व अधिकोष से ऋण पाकर
जिसे चुकाने की चिंता कतई नहीं होती
मुझे या सरकार को
क्योंकि मर जाएंगे हम दोनों ही एक दिन
मैं बूढ़ा होकर और सरकार जर्जर होकर
किंतु सुखद खबरें भी हैं
नो- नेगेटिव अख़बारों में
वे कहते हैं कि...
पांच साल बाद फिर जन्म ले लेगी सरकार
अपनी राख से ही पथ्य पाए किसी फीनिक्स पक्षी की तरह
और
जी उठूंगा मैं भी
अपने बच्चों में!
मैं और सरकार...कभी न खत्म होंगे
एक अनवरत सिलसिले की तरह
फिर क्यों न रहें हम मिल जुल कर
दोस्तों की तरह !
हां...ये बात और है कि
गले न मिलें फ़िलहाल
सोशल डिस्टेंसिंग के माहौल में
वैसे भी
माहौल कैसा भी हो
नज़दीकी कब अच्छी है कि रख पाएं निकटता
मैं और सरकार!!!
