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क्यों?

क्यों?

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क्यों यक़ीन ही नहीं ज़माने को उस पे?
मंदिरो और दरगाहो पे उसे खोजता है?
 
तेरी तमन्नाओ को तस्बीह मिल भी जाए,
क्या कुछ तेरा नहीं उस पार, जो पुकारता है?
 
क्यों झुके आसमान तेरी हर ख्वाहिशों पे?
कहता क्यों नहीं कुछ, जब सूरज डूबता है?
 
साया सा हर पल तू लहराया ही होगा कहीं!
क्यों आज ज़माने भर में तेरा अक्स ढूंढता है?
 
जा आज़मा ले, मांग ले दामन भर के उससे,
क्या वो कभी फुर्सत से हिसाब करके बैठता है? 


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