कविता ~हसरत भी ना कुछ पाने की
कविता ~हसरत भी ना कुछ पाने की
हसरत भी ना कुछ पाने की,ना आदत है ललचाने की।
निस्वार्थ भाव से हो सेवा,सौगन्ध ली फर्ज निभाने की।।
सरहद पर सैनिक खड़ा हुआ,ना भूख प्यास का ख्याल रहे।
थर्रायें दुश्मन देख देख ,बनकर के उनका काल रहे ।।
उँचा हर पल बस भाल रहे, फिक्र ना सर कट जाने की।
हसरत ना कर कुछ पाने की ,छोडो आदत ललचाने की।।
भोर हुई बिस्तर छुड़ जाये, दो बैलों का साथ मिले।
बहा पसीना धरती सीँचे, खेतों में खलिहान खिले।।
दबा हुआ एहसान तले, घड़ी आ गई कर्ज चुकाने की।
ना हसरत है कुछ पाने की,।।
सदा रहे सेवा में तत्पर, एक पल का आराम नहीं।
लगे सादगी इतनी प्यारी, धन दौलत का भान नहीं ।।
शौहरत का भी अरमान नहीं, इच्छा बस कलम उठाने की।
सिंहासन सारा हिल जाये, ललकार कभी जो सुन जाती।
अन्याय-ज्यादती मुहँ फेरे, हों बन्द तो आँखे खुल जाती।।
हक की आवाज़ जो उठ जाती ,धुन लगती छन्द बनाने की।
निस्वार्थ भाव से हो सेवा,सौगन्ध ले फर्ज निभाने की।।
