कहाँ खो गया वो?
कहाँ खो गया वो?
एक आदमी से अक्सर बांते किया करता था मैं।
कभी अकेले कभी भीड़ में उससे मिलता था मैं।
वो भी मेरी तरह कुछ डरा-सहमा सा दिखता था।
वो भी अक्सर कुछ हैरान-परेशान सा दिखता था।
चेहरे पर हज़ारों सवाल लिए भटकता रहता था वो।
अजीब सी कैफ़ियत में रोज़ घुटता रहता था वो।
ये तो मालूम नहीं कि वो क्यूँ भटक रहा था।
हाँ मगर कुछ था ज़रूर जो उसे खटक रहा था।
उससे परेशानी का सबब कई बार पूछा मैंने।
दर्द-ए-दिल का सबब कई बार पूछा मैंने।
लेकिन वो कहता कि वो खुद भी नहीं जानता कि वो परेशान क्यूँ है।।
आदमी अच्छा लगता था मगर।
दिल से सच्चा लगता था मगर।
ना जाने क्यूँ कई दिनों से मिला नहीं वो।
कहाँ गया, कई दिनों से दिखा नहीं वो।
खो गया शायद चकाचौंध में कहीं, जैसे सूरज की रौशनी में चाँद खो जाता है।
पर रात तो दोबारा आ जाती है और चाँद भी फिर निकल आता है।
लेकिन वो कुछ यूँ गया कि फिर लौटा नहीं।
बह गया शायद बारिशों में कहीं, जैसे बाढ़ में कोई गाँव बह जाता है।
पर अगली बारिश में फिर बहने क
े लिए गाँव तो फिर से बस जाता है।
लेकिन वो कुछ यूँ गया कि फिर लौटा नहीं।
उससे अभी कितनी सारी बांतें करनी हैं मुझे।
अपनी तमाम परेशानियाँ कम करनी हैं मुझे।
लेकिन वो मतलबी निकला, अब मिलता ही नहीं।
मेरी जेब फट गई है, पर कोई सिलता ही नहीं।
वैसे ये भी हो सकता है कि वो नाराज़ हो मुझसे।
किसी बात का बुरा मानकर रूठ गया हो मुझसे।
या शायद मेरी ही ज़िद का ये नतीजा है।
मेरी नासमझी खुद मुझपर ही लतीफ़ा है।
मुझसे वो आख़िरी मुलाक़ात का दिन नहीं भुलाया जाएगा।
उसने मुझे कहा था कि अब मिलना मुश्किल हो जाएगा।
वो मुझे मेरा कुछ सामान बेचने से रोक रहा था।
और मैं बच्चे की तरह अपनी ज़िद पर अड़ा था।
उसने कहा था कि इन्हें बेच दोगे तो हम कैसे मिलेंगे।
मैंने कहा इनकी क्या ज़रूरत है, जब चाहें मिल लेंगे।
आज अहसास हुआ कितना ग़लत था मैं उस दिन।
आज मालूम पड़ा कि कितना मनहूस था वो दिन।
वो दिन जब मैं कबाड़ी की दुकान पर गया था।
वो दिन जब मैं घर के सब आइने बेच आया था।